आसक्ति ही इन
दोनोंमें भेद करती है और यही संसारमें बाँधती है । अनासक्त होते ही भगवान्के साथ नित्य-सम्बन्धका अनुभव स्वतः हो जाता है और भगवान्के
साथ सम्बन्ध जोड़नेसे आसक्ति मिट जाती है । कर्मयोग और
ज्ञानयोग आसक्तिका नाश करते हैं और आसक्तिका नाश होनेपर भगवान्के साथ सम्बन्ध हो
जाता है । भक्तियोग भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ता
है और सम्बन्ध जुड़नेपर संसारकी आसक्तिका नाश हो जाता है । इसलिये गीताने
‘योग’ की दो परिभाषाएँ दी हैं–‘दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’
(६/२३) और ‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८) ।
तात्पर्य है कि संसारके वियोगका नाम भी योग है और परमात्माके नित्ययोगका नाम भी
योग है । संसारका वियोग नित्य-निरन्तर रहता है और
परमात्माका योग नित्य-निरन्तर रहता है । जो नित्य-निरन्तर रहता है, उसीको ‘समता’ कहते हैं । वह समताका स्वरूप है–‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ (गीता ५/१९) । संसारका वियोग
होनेपर परमात्माके योगका अनुभव हो जाता है और परमात्माके योगका अनुभव होनेपर
संसारके साथ वियोग हो जाता है ।
हमारे सामने
दो चीजें हैं–नित्य और अनित्य । विचार करें, हम जो बालकपनमें थे, वही हम आज भी
हैं; परन्तु वह शरीर नहीं रहा, वह स्थान नहीं रहा, वह परिस्थिति नहीं रही, वे भाव
नहीं रहे, सबके साथ वियोग हो गया । जैसे गंगाजीका प्रवाह
नित्य-निरन्तर बहता रहता है, ऐसे ही संसार निरन्तर बह रहा है, एक क्षण भी स्थिर
नहीं होता । नित्य-निरन्तर बहते हुए अभाव (नाश)-में जा रहा है । हम जितने
वर्षोंके हो गये, उतने वर्ष बित गये हैं । शरीरको लेकर कहते हैं कि हम जी रहे हैं–यह बिलकुल झूठी बात
है ! सच्ची बात तो यह है कि हम मर रहे हैं । हम कहते हैं
कि पचास वर्षके हो गये तो वास्तवमें हमारी उम्रमेंसे पचास वर्ष खत्म हो गये । अब
बाकी कितनी उम्र है–इसका पता नहीं, पर पचास वर्ष तो मर ही गये–इसमें सन्देह नहीं
है । जब जन्मदिन आता है, तब हम बड़ा आनन्द मनाते हैं कि आज हम इतने वर्षके हो गये !
वास्तवमें इतने वर्षके हो नहीं गये, प्रत्युत इतने वर्ष मर गये । तात्पर्य है कि
शरीर और संसारके साथ हमारा नित्य-निरन्तर वियोग हो रहा है । इस वियोगका हम अनुभव
कर लें तो परमात्माके नित्ययोगका अनुभव हो जायगा ।
एक दृष्टान्त
दिया जाता है–आपके घरमें लड़का भी जन्मता है और लड़की भी । आपके मनमें यह भाव रहता
है कि लड़का तो रहनेवाला है और लड़की जानेवाली है । इसलिये लड़केमें आपकी जितनी
आसक्ति होती है, उतनी लड़कीमें नहीं होती । लड़की घरपर
रहनेवाली नहीं है–ऐसा निश्चय होनेपर उसका उतना मोह नहीं रहता । इसी तरह शरीर,
पदार्थ, धन-सम्पत्ति, आदर-सत्कार, मान-बड़ाई आदि सब-की-सब कन्या है, जो आपके साथ
रहनेवाली नहीं है । संसारमात्र आपसे निरन्तर अलग हो रहा है । यह अलग होना
कभी बन्द नहीं होता । अन्तमें संसारका वियोग हो जायगा–यह
बिलकुल अकाट्य बात है । ब्रह्माकी आयुसे भी अधिक आयु मिल जाय तो भी
संसारका संयोग किसीका भी कभी रह नहीं सकता । ऐसा होनेपर भी आसक्तिके कारण संसारका
सम्बन्ध स्थिर प्रतीत होता है । इस आसक्तिको मिटाना ही
मनुष्यका खास उद्देश्य है और इसीमें मनुष्यजन्मकी सफलता है; क्योंकि अन्य
जन्मोंमें ऐसा विवेक सम्भव नहीं है ।
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