।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ पूर्णिमा, वि.सं.२०७७ रविवार
श्रीव्यास-पूर्णिमा, गुरु-पूर्णिमा
गीताका अनासक्तियोग


॥ कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
श्रीगुरुपूर्णिमा पर्वके पावन अवसरपर सभीको हार्दिक शुभ-कामनाएँ, हम भगवद्‌कृपासे प्राप्त विवेकका आदर करके अपना जीवन सफल बनावें ।

मनसे वस्तुओंको अपना मानना ही ममता (आसक्ति) है । बाहरसे अर्थात् व्यवहारमात्रमें वस्तुओंको अपना मानना ममता नहीं है । व्यवहारमें अपनेपनका सम्बन्ध केवल सेवाके लिये ही रखना है । केवल एक-दूसरेकी सेवाके लिये माना हुआ सम्बन्ध बन्धनकारक नहीं होता । अपने स्वार्थके लिये माना हुआ सम्बन्ध ही बाँधनेवाला होता है ।

संसारके साथ हमारा सम्बन्ध टिक नहीं सकता और परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध मिट नहीं सकता । परन्तु नाशवान्‌में आसक्तिके कारण हमें परमात्माके साथ अपने सम्बन्धका भान नहीं होता । नाशवान्‌में आसक्ति होनेपर फिर निरन्तर नाशवान्‌-ही-नाशवान्‌का सम्बन्ध दीखता है ।

प्रश्न–नाशवान्‌की आसक्तिका नाश कैसे हो ?

उत्तर–इसका बड़ा सीधा-सरल उपाय है कि जिन-जिनके साथ हमारी आसक्ति है, उन-उनकी सेवा करें और बदलेमें उनसे मान, आदर, सेवा, सत्कार, एहसान आदि कुछ भी न चाहें । जिन व्यक्तियोंमें अपनापन है, उन व्यक्तियोंकी सेवा करें । जिन पदार्थोंमें अपनापन है, उन पदार्थोंको सेवामें लगा दें । शरीरमें अपनापन है तो शरीरसे परिश्रम करके सेवा करें । जितना-जितना दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव पैदा हो जायगा, उतना-उतना हमारा वस्तुओंके साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा ।

जब अधिकमास आता है, तब बहनें-माताएँ दान करनेके लिये थाली, गिलास, कटोरी, लोटा, छाता, आसन, कपड़ा आदि वस्तुएँ इकठ्ठा करती हैं । उनमेंसे एक कटोरी भी कोई बालक ले आता है तो वे कहती हैं कि अरे ! यह देनेकी चीज है, अपनी चीज नहीं है । अपने ही पैसोंसे खरीदी हुई और अपने ही घरमें रखी हुई होनेपर भी हम उसको अपनी नहीं मानते और अपने काममें नहीं लेते । इसी तरह ये सब-की-सब वस्तुएँ सेवाके लिये हैं, अपने सुखभोगके लिये नहीं है–ऐसा निश्चय कर लें तो इस विषयमें आसक्ति मिट जायगी ।


इस मनुष्यशरीरका फल सुख भोगना है ही नहीं–‘एहि तन कर फल बिषय न भाई ।’ (मानस ७/४४/१) । यह तो केवल दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये, दूसरोंकी सेवा करनेके लिये ही है । अगर हम सेवामें लग जायँ, मात्र प्राणियोंके हितमें हमारी प्रीति हो जाय तो आसक्ति मिट जायगी–‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२/४) ।