॥ कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥
श्रीगुरुपूर्णिमा पर्वके पावन अवसरपर सभीको हार्दिक शुभ-कामनाएँ, हम भगवद्कृपासे प्राप्त विवेकका आदर करके अपना जीवन
सफल बनावें ।
मनसे
वस्तुओंको अपना मानना ही ममता (आसक्ति) है । बाहरसे
अर्थात् व्यवहारमात्रमें वस्तुओंको
अपना मानना ममता नहीं है । व्यवहारमें अपनेपनका सम्बन्ध केवल
सेवाके लिये ही रखना है । केवल एक-दूसरेकी सेवाके लिये माना हुआ सम्बन्ध बन्धनकारक नहीं होता । अपने
स्वार्थके लिये माना हुआ सम्बन्ध ही बाँधनेवाला होता है ।
संसारके
साथ हमारा सम्बन्ध टिक नहीं सकता और परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध मिट नहीं सकता । परन्तु
नाशवान्में आसक्तिके कारण हमें परमात्माके साथ अपने सम्बन्धका भान नहीं होता ।
नाशवान्में आसक्ति होनेपर फिर निरन्तर
नाशवान्-ही-नाशवान्का सम्बन्ध दीखता है ।
प्रश्न–नाशवान्की आसक्तिका नाश कैसे हो ?
उत्तर–इसका बड़ा
सीधा-सरल उपाय है कि जिन-जिनके साथ हमारी आसक्ति है, उन-उनकी सेवा करें और बदलेमें
उनसे मान, आदर, सेवा, सत्कार, एहसान आदि कुछ भी न चाहें । जिन व्यक्तियोंमें
अपनापन है, उन व्यक्तियोंकी सेवा करें । जिन पदार्थोंमें अपनापन है, उन पदार्थोंको
सेवामें लगा दें । शरीरमें अपनापन है तो शरीरसे परिश्रम करके सेवा करें । जितना-जितना दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव पैदा हो जायगा,
उतना-उतना हमारा वस्तुओंके साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा ।
जब अधिकमास
आता है, तब बहनें-माताएँ दान करनेके लिये थाली, गिलास, कटोरी, लोटा, छाता, आसन,
कपड़ा आदि वस्तुएँ इकठ्ठा करती हैं । उनमेंसे एक कटोरी भी कोई बालक ले आता है तो वे
कहती हैं कि अरे ! यह देनेकी चीज है, अपनी चीज नहीं है । अपने ही पैसोंसे खरीदी
हुई और अपने ही घरमें रखी हुई होनेपर भी हम उसको अपनी नहीं मानते और अपने काममें
नहीं लेते । इसी तरह ये सब-की-सब वस्तुएँ सेवाके लिये
हैं, अपने सुखभोगके लिये नहीं है–ऐसा निश्चय कर लें तो इस विषयमें आसक्ति मिट
जायगी ।
इस
मनुष्यशरीरका फल सुख भोगना है ही नहीं–‘एहि तन कर फल बिषय
न भाई ।’ (मानस ७/४४/१) । यह तो केवल
दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये, दूसरोंकी सेवा करनेके लिये ही है । अगर हम सेवामें
लग जायँ, मात्र प्राणियोंके हितमें हमारी प्रीति हो जाय तो आसक्ति मिट जायगी–‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२/४) ।
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