तो फिर सुखका उपाय क्या है ? सुखका
उपाय है‒चिन्मय परमात्माकी प्राप्तिका लक्ष्य और धर्म तथा न्यायका आचरण ।
अभिप्राय यह है कि जब हमारे आचरण धर्मयुक्त होंगे और जब हम न्यायसे प्राप्त अपने
हकके अतिरिक्त और कुछ ग्रहण करनेकी इच्छा नहीं करेंगे, तभी असली सुखकी उपलब्धि हो
सकेगी । यह होगी त्याग और उदारता आनेसे । जिन वस्तुओंको
हम सुख देनेवाली समझते हैं, उनको जब हम सभी त्याग और उदारताके भावसे एक-दूसरेको
देना चाहेंगे और लेना नहीं चाहेंगे तब उन वस्तुओंकी स्वतः ही बहुतायत हो जायगी और
लेनेवाले हो जायँगे कम । उस समय हमारी उदारताके फलस्वरूप दैवी शक्ति भी पूरा काम
करेगी, जिससे वस्तुओंका उत्पादन और रक्षण भी अधिक होगा । इस प्रकार सर्वत्र सुखका
ही साम्राज्य छा जायगा । त्याग और उदारताकी भावनासे हमारा मन ज्यों-ज्यों जड़
पदार्थोंकी ओरसे हटता जायगा, त्यों-ही-त्यों वह चेतन परमात्माकी ओर लगेगा । जड़की
ओरसे दृष्टि हटनेपर वह चेतनकी ओर स्वतः प्रवृत्त होगी । तब उसकी जो यह मूल धारणा
थी कि इन पदार्थोंमें
सुख है, वह मिट जायगी । तथा वह चेतन परमात्मा बोधस्वरूप और आनन्द-स्वरूप
है, यों समझकर उसकी ओर लक्ष्य दृढ़ हो जानेपर जीव स्वयं ही ज्ञानवान् और
आनन्दस्वरूप हो जायगा । उस स्थितिमें ऐसे पुरुषके दर्शन, भाषण और स्पर्शसे दूसरे
जीवोंको भी सुख पहुँचेगा; फिर वह स्वयं महान् सुखी है, इसमें तो कहना ही क्या है ? जो अपने स्वार्थका त्याग करके जनताका हित चाहता है और बदलेमें
किसी भी चीजको लेना नहीं चाहता, वही वास्तवमें
सुखी है । कुछ भाइयोंकी धारणा है कि धनी आदमियोंके पास जो धन है, उसे
छीनकर अभावग्रस्तोंको बाँट दिया जाय तो सब सुखी हो जायँ, किन्तु सोचना चाहिये कि
धनी आदमियोंको जिस तरहका सुख प्राप्त है, वह तो दुःखवाला (दुःखपूर्ण) ही सुख है,
जिससे वे स्वयं रात-दिन जलते रहते है, उन्हें कभी शान्ति नहीं मिलती । अतः उनसे जो
सुख मिलेगा, वह तो उसी प्रकारका होगा, जो दुःखपूर्ण है; तथा जिससे धन छीना जायगा,
उसे तो महान् कष्ट होगा ही । उसे कष्ट देकर लेनेसे लेनेवालेको भी सुख कैसे होगा,
जलन ही होगी तथा वह धन जिसे दिया जायगा, वहाँ भी दुःख, अशान्ति और जलन ही प्राप्त
होगी ।
यह सिद्धान्त है कि देनेवाला दे ही दे और
लेनेवाला सेवक, परिचारक लेना ही न चाहे, तो इससे देनेवालेमें तो उदारता पैदा होकर
प्रसन्नता होगी और देनेवालेकी प्रसन्नतासे लेनेवालेको भी त्यागपूर्वक लेनेसे आनन्द
आयेगा तथा वह अमृतमय पदार्थ जहाँ जायगा, वहाँ भी सुख-शान्ति और आनन्दका ही वातावरण
पैदा हो जायगा । तभी सबको सुख मिलेगा और तभी सबके हृदयके भाव उदार होंगे; क्योंकि सुख वस्तुओंमें नहीं है, सुख है
हमारे हृदयकी उदारतामें । |