लोग कहते हैं कि कोरे विचारोंसे क्या
होगा ? मेरा
कहना है कि विचारोंसे सब कुछ हो जाता है, देनेकी यदि भावना हो जाती है तो
फिर अपनेमें त्याग आ ही जाता है । त्याग आनेपर फिर कुछ भी बाकी नहीं रहता । यह भाव होना चाहिये कि जो नाशवान् पदार्थ हमारे पास हैं, ये
जा तो रहे ही हैं । इनको सबके हितमें लगाकर लाभ ले लें । ‘देखत ही छिप जावसी ज्यूँ तारा परभात’ । सूर्य उदय हो जानेपर ज्यों तारे छिप जाते हैं, ऐसे ही यह
संसार छिप रहा है, मौतमें जा रहा है, प्रलयमें जा रहा है । अतः पदार्थोंके
रहते-रहते इनका सदुपयोग करके लाभ ले लो । कह दास सगराम सुन हे धन री धिणियाणी । कर सुकृत भज राम, धोयले
बहते पानी ॥ बहते पानी धोयले, कृपा करि
महाराज । कारज कर ले जीव को, कीयो जाय तो आज ॥ कीयो जाय तो आज, काल की जाय न जानी । कह दास सगराम, सुन हे धन री धिणियाणी ॥ तेरे पास धन-सम्पत्ति हैं तो सुन ले, ये कितने दिनके लिये
हैं अर्थात् ये बहुत थोड़े दिनके लिये हैं, फिर छूट जायँगे । चाहे धन चला जाय, चाहे
तुम्हारा शरीर चला जाय, चाहे दोनों चले जायँ । छूटेंगे अवश्य, इसमें सन्देह नहीं
है । आप इनको सुकृतमें लगा दोगे तो निहाल हो जाओगे ।
नहीं तो रखकर मर जाओगे तो प्रेत होओगे, भूत होओगे, सर्प होओगे, नरकोंमें जाओगे ।
अतः भावना केवल दूसरोंके हित करनेकी होनी चाहिये । धनकी आवश्यकता नहीं है । आपके
पास जो विद्या, बुद्धि, तन, मन, इन्द्रियाँ हैं, उनके द्वारा दूसरोंका हित कैसे हो
? यह तीव्र इच्छा करो । अधिक-से-अधिक आदमियोंका हित कैसे
हो ? आज जरा आँख पसारो । देखो, दुनियामें कितना दुःख हो रहा है !
आजकलके कारण लोगोंको अन्न नहीं मिल रहा है । जो बड़े जमीनदार थे, आज उनके घरोंमें
खानेके लिये अन्न नहीं है । ऐसी आज हालत है । हमारे साथ रहनेवाले कई सज्जन
गाँवोंमें गये हैं । उन्होंने अन्न और चारा वितरण किया है, उनसे ऐसी बातें मिली
हैं । अगर अब वर्षा नहीं हुई तो क्या दशा होगी ? भगवान् ही जाने । बड़ी कठिन
परिस्थिति है । भले-भले घरानेके आदमी
रात्रिमें आकर मिलते हैं । दिनमें मुँह नहीं दिखाते हैं । करे क्या ?
खानेको अन्न नहीं है, पहननेको कपड़ा नहीं है । यह दशा हो रही है । इस समय अपने पास वस्तुएँ हैं, उनके सदुपयोगका बड़ा मौका है ।
अतः सदुपयोग कर लो । गायोंके लिये चारा नहीं है । कहीं-कहीं तो गाँवोंमें पानीकी
भी बड़ी तंगी है । ऐसी तो गर्मी पड़े और पानी मिले नहीं तो हमारी क्या दशा हो ? जरा
विचारो । आप और हम जो पदार्थोंके लेनेकी इच्छा रखते हैं,
यह डाकापना है, यह खाऊँ-खाऊँपना है । हमारेको मिल जाय, धन नहीं मिले तो मान-बड़ाई
मिल जाय । वाह-वाह मिल जाय‒यह सब डाकापना है । चाहे धन-आराम चाहो अथवा
मान-बड़ाई चाहो‒सब एक ही बात है । को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः । श्रीमांश्च को
यस्य समस्ततोषः॥
दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा-इच्छा बड़ी है । हमें हर वक्त
चाहिये-ही-चाहिये‒यह दरिद्रता है, महान् दरिद्रता है, कंगालपना है ।
वास्तवमें हम धनी उस दिन होंगे, जिस दिन यह तृष्णा हृदयसे निकल जायगी । ‘हरेकको सुख कैसे पहुँचे, प्रत्येकका भला कैसे हो,
प्राणिमात्रका कल्याण कैसे हो ।’‒यह बड़ी भारी सम्पत्तिकी बात है । जैसे
तिजोरीके चाबी लगाकर अपनी तरफ घुमाते हैं तो ताला लग जाता है, कौड़ी एक मिलती नहीं
। दूसरी तरफ चाबी घुमायी जाय तो सब-का-सब खजाना मिल जाता है । ऐसे ही मेरेको मिले
तो तिजोरी बंद हो रही है । रोओगे, मिलेगा कुछ नहीं । वही चाबी दूसरी तरफ घुमायी
जाय यानी सबका हित कैसे हो‒यह भावना कर ली जाय तो भण्डार भरा रहेगा । वस्तुओंकी तृष्णा मिटते ही वस्तुएँ खुली जाती हैं (सहजतासे
प्राप्त हो जाती है) । अतः अपने लिये चाहते
रहनेसे कोई लाभ नहीं है । |