।। श्रीहरिः ।।

                                            




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७७, रविवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




प्रश्न उठता है कि यदि अपने लेनेकी इच्छा छोड़ दें तो जीवन कैसे चलेगा । मनुष्य जीनेकी इच्छा रहते-रहते मरता है । इच्छासे जीता रह जायगा क्या ? इच्छा करनेसे न जी पाता है, न मरता है । इसलिये यह सर्वथा भ्रम है कि इच्छा छोड़नेसे मनुष्य जीता कैसे रहेगा ? जीनेकी इच्छावाले ही मरते हैं । जिनके जीनेकी, पानेकी इच्छा नहीं है, वे शरीरके मरनेपर भी नहीं मरते हैं । वे चाहे जीते न दीखें, परन्तु गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज-जैसे सन्त अपनी वाणीसे, वचनोंसे, आचरणोंसे दुनियाका हित करते रहते हैं, इसलिये वे मरे हुए भी जीते ही हैं । जो जीना चाहते हैं, वे तो मर ही रहे हैं । इसलिये सबका हित करनेकी जोरदार इच्छा बनाओ ।

आज सेवा करनेवाले भाइयोंकी बड़ी आवश्यकता है । लोग तो पैसेकी जरूरत मानते हैं । मैं पैसेकी इतनी जरूरत नहीं मानता हूँ, जितनी सद्भावकी जरूरत मानता हूँ । सद्भाववाले परिश्रमी आदमियोंकी आवश्यकता है । ऐसे सद्भाववाले आदमी तैयार हों तो धन तो महाराज ! पैरोंमें रुलेगा । धन कोई बढ़िया चीज नहीं है । धन वास्तवमें कोई धन नहीं है । असली धन है सबके हितका भाव । इस ‘भावके धनी’ सब बन सकते हैं । पर अब क्या करें ? कैसे समझावें ? लोगोंने धनको बहुत ऊँचा मान रखा है । समझानेकी मेरेमें ताकत नहीं है, परन्तु इस विषयमें मैंने अध्ययन किया है, पढ़ा है, सन्तोंसे सुना है, सत्संगति की है, स्वयं विचार किया है । शायद आपके यह बात अभी नहीं जँचे । आप सब इस बातको जाननेके अधिकारी हैं, पर जानना चाहते नहीं, मानते नहीं‒इस बातका कोई उपाय नहीं है ।

धन-जैसी कोई रद्दी चीज नहीं है । कूड़ा-करकट, टट्टी-पेशाब भी धनसे बढ़िया है, ऊँचे दर्जेकी चीज है । परन्तु यह बात मैं समझा नहीं सकता, किन्तु बात यह सच्‍ची है । धन स्वयं काममें नहीं आता है, नहीं आता है, नहीं आता है । अन्नके द्वारा, वस्त्रके द्वारा, जलके द्वारा, नौकरके द्वारा काम आता है । कहीं-न-कहीं कुछ चीज लेकर धन काममें आता है । धन स्वयं काममें नहीं आता है, परन्तु धनको आपने महत्त्व दे दिया कि भगवत्प्राप्तिसे‒अपने कल्याणसे भी बढ़कर उसे समझ लिया और नरकोंकी तैयारी कर ली । चौरासी लाख योनी-नरक स्वीकार है, पर अपना कल्याण‒भगवत्प्राप्ति स्वीकार नहीं । जिस लोभको भगवान्‌ने नरकका दरवाजा बताया है, उसी लोभमें तल्लीन हो गये; उधर ही वृत्ति चली गयी । इसलिये कैसे समझमें आवे ? अर्जुनने कौरवोंके विषयमें यही कहा‒

यद्यपेते न पश्यन्ति  लोभोपहतचेतसः ।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रदोहे च पातकम् ॥

                                              (गीता १/३८)

‘यद्यपि लोभसे भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशसे उत्पन्न दोषको और मित्रोंसे विरोध करनेमें पापको नहीं देखते ।’ अतः हमलोगोंको इस पापसे हटनेके लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये ?

आपने धनको इतना पकड़ लिया कि मैं आपलोगोंको समझानेमें अपनेको असमर्थ मानता हूँ । मैं नहीं समझा सकता तो आप मेरेको भी नहीं समझा सकते कि धन ही सबसे ऊँचा है । आप सब-के-सब पूरा जोर लगा लें तो भी मुझे इसकी सर्वश्रेष्ठता नहीं समझा सकते । अगर समझमें आ जायगी तो मान लूँगा, क्योंकि मैंने इस विषयपर विचार किया है, पुस्तकें पढ़ी हैं, सन्तोंसे मिला हूँ । ठीक बात है, मेरी बात सच्‍ची है । धन-जैसी रद्दी चीज कोई नहीं है । धनका लोभी कौन-सा पाप नहीं कर बैठता ? धनका लोभी महान्‌ अनर्थ कर लेता है । जितने अनर्थ होते हैं, वे सब लोभियोंके द्वारा ही होते हैं ।