।। श्रीहरिः ।।

                                             




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७७, सोमवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




अर्जुनने गीताजीमें भगवान्‌से प्रश्न किया कि मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी पाप क्यों करता है ? भगवान्‌ने उत्तर दिया कि कामना ही पाप करवानेमें हेतु है । धनकी, भोगोंकी कामना सम्पूर्ण पापोंकी जड़ है । मेरेको धन मिलेयह इच्छा पापोंकी, नरकोंकी, अन्यायकी जड़ है । यह इच्छा ही अन्यायका खास बीज है । इस कामनामें जब बाधा लगती है तो क्रोध आता है; फिर क्रोधके वशीभूत होकर पाप कर बैठता है । मूल पापकी जड़ कामना हुई अर्थात् सुखभोगकी इच्छासंग्रहकी इच्छा यह पापकी जड़ है । यदि इन इच्छाओंका रूप बदल दो कि सब सुखी कैसे हो जायँ, सबको आराम कैसे पहुँचे तो अपने संग्रह और भोगकी इच्छा मिट जाय और जीवन निर्मल हो जाय । इस लोकमें सुखी हो जाओगे और परलोकमें कल्याण हो जायगा । इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं । यह पक्‍की और सच्‍ची बात है ।

त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् । (गीता १२ / १२)

त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है । त्याग क्या है ? ‒दूसरोंको सुख कैसे हो ? आराम कैसे मिले ?‒यही त्याग है । मैं सुखी होऊँ, मुझे कुछ मिलेयही कामना है । नाशवान्‌की इच्छा रखते हुए अशान्ति, सन्ताप, दुःख, जलन होगाइनसे बच सकते नहीं । नाशवान्‌ मिल भी जाय तो वास्तवमें नहींही तो मिलेगा, जो कभी नहीं होता है । जो कभी भी नहींहोता है, वह सदैव ही नहींही है । वह नहींमिले तो भी नहीं ही है । नाशवान्‌में तो केवल नाशही सार है । इसलिये इसके द्वारा तो दूसरोंको सुख पहुँचाओ । सुख पहुँचाते हुए यह मत समझो कि मैंने सुख पहुँचाया है । उसकी ही वस्तु उसके काममें आ रही हैऐसा भाव रखो, क्योंकि हम वस्तुओंको साथ लेकर जन्मे नहीं, साथ ले जा सकते नहीं । जीवित-कालमें भी पदार्थोंको मन-मुताबिक रख सकते नहीं, बदल सकते नहीं, फिर भी उनको अपना कहते हैं, मेरा मानते हैं और मेरे लिये मानते है । आप परमात्माका अंश हो । परमात्माके लिये हो, इतना ऊँचा दर्जा है आपका; जो भगवान्‌ने दिया है । जो हमारी वस्तु होती है, वह सदा हमारे साथ रहती है । इसलिये उत्पन्न और नाश होनेवाली वस्तुएँयहाँतक कि शरीर भी हमारा नहीं है, पर इन बातोंपर कौन ध्यान देता है ? आप सबका अनुभव है कि हमारा इन वस्तुओंपर पूरा अधिकार नहीं चलता; फिर भी हम इनको अपनी मानते है ! कैसी भूल है ! जरा विचारो ।

पदार्थोंको अपना मानते रहोगे तथा और मिलेऐसी इच्छा रखोगे तो पतन होगा । पाप होगा, जन्म मरण होगा । इसलिये इनको पानेकी इच्छा मत रखो । केवल दूसरोंको सुख कैसे होयह इच्छा रखो । आप जिस घरमें जन्मे हो तो वहाँ जितनी संगृहीत वस्तुएँ आपके अधिकारमें आयी है, वे सब-की-सब सेवा करनेके लिये मिली है । इसलिये जितना बन सके सेवा कर दो ।