Jan
24
।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                               




           आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल एकादशी वि.सं.२०७७, रविवा
भगवत्प्राप्ति सहज है


हम करेंगे, तब काम होगा‒ऐसा एक क्रियाका विषय होता है । खेती करेंगे, तब होगा; व्यापर करेंगे, तब होगा; नौकरी करेंगे तब होगी‒इस प्रकार एक धारणा रहती है कि हरेक काम करनेसे ही होगा । इसी तरह भगवत्प्राप्ति भी करनेसे होगी और भगवत्प्राप्तिके लिये जितना समय, बल, बुद्धि लगायेंगे, जितना अभ्यास करेंगे, उतना ही हम भगवान्‌के नजदीक पहुँचेंगे तथा ऐसा करते-करते उसे प्राप्त कर लेंगे‒ऐसी धारणा रहती है । तो इसमें एक मार्मिक बात जाननेकी आवश्यकता है । वह यह कि परमात्मा पहलेसे मौजूद हैं । हम भी उस परमात्माके नजदीक हैं । परमात्मा दूर हैं, अतः धीरे अथवा तेजीसे चलकर वहाँ पहुँचेंगे, परिश्रम भी होगा, रास्ता भी कटेगा, समय भी लगेगा ही‒ऐसी बात नहीं है । जहाँ हम परमात्माको प्राप्त करना चाहते हैं और जहाँ हम अपनी स्थितिको मानते हैं‒वहीं परमात्मा पूरे-के-पूरे विराजमान हैं ।

परमात्माको पानेका अधिकार दूसरोंका है, वे किसी औरके कब्जेमें हैं, उन्हें छुड़ायेंगे तब काम बनेगा । उनकी गरज करेंगे तो वे कुछ निहाल करेंगे और उनकी प्राप्ति होगी‒ऐसी बात बिलकुल नहीं है । परमात्मा किसीके अधिकारमें नहीं हैं, उनपर किसीका कब्ज़ा नहीं है, वे किसी स्थानपर बन्द नहीं हैं, वे किसी ज्ञान आदिसे बन्धे हुए नहीं हैं । वे बिलकुल खुले हैं । उनपर हमारा पूरा हक लगता है; क्योंकि हम उन्हींके अंश हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनाशी’ (मानस ७/११७/१)जैसे बालक होता है, तो उसे अपनी माँकी गोदमें जानेके लिये क्या नया काम करना पड़ता है ? क्या अभ्यास करना पड़ता है ? क्या उसे शुद्ध होना पड़ता है ? क्या उसे विद्वान, बलवान् या धनवान्‌ बनना पड़ता है ? वह तो माँ है, जैसा-का-तैसा ही माँके पास जा सकता है । भगवान्‌ तो माँसे भी विशेष अपने और समीप हैं । कारण कि माँ तो एक जन्मकी होती है और भगवान्‌ तो सदासे ही हमारे माता, पिता, भाई, बन्धु, सम्बन्धी, कुटुम्बी हैं । हमसे नजदीक-से-नजदीक वस्तु भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌ तो सदासे ही हमारे माता, पिता, भाई, बन्धु, सम्बन्धी, कुटुम्बी हैं । हमसे नजदीक-से-नजदीक वस्तु भगवान्‌ ही हैं । वे शरीरसे भी अधिक नजदीक हैं, क्योंकि शरीर तो परिवर्तनशील होनेसे हमसे अलग है । शरीरकी संसारके साथ एकता है और हमारी भगवान्‌के साथ एकता है । इसलिये उन्हें पानेके लिये समय, बुद्धि लगानी पड़े‒ऐसी बात नहीं है । केवल उधर हमारी दृष्टि नहीं है । हमारी दृष्टि नाशवान्‌ पदार्थोंकी तरफ है । नाशवान्‌ पदार्थोंमें भी परमात्मा ज्यों-के-त्यों परिपूर्ण हैं, परन्तु उधर दृष्टि न रहनेसे वे नहीं दीखते, नाशवान्‌ पदार्थ दीखते हैं । जैसे हम गाड़ीमें जा रहे हैं । किसी स्टेशनपर गाड़ी ठहरी । अधिक देर ठहरी, कारण कि  सामने दूसरी गाड़ी आयी और दूसरी लाइनमें खड़ी हो गयी । हम उस गाड़ीके तरफ देखते हैं । वह गाड़ी चल पड़ती है तो मालूम होता है कि हमारी गाड़ी चल पड़ी, जबकि हमारी गाड़ी ज्यों-की-त्यों खड़ी है । इसका पता तब लगेगा, जब हम स्टेशनकी तरफ देखेंगे । इसी प्रकार चलनेवाले संसारको न देखकर स्थिर रहनेवाले परमात्मतत्त्वको देखें । तो वह परमात्मा न कहींसे आया और न कहीं गया, वह ज्यों-का-त्यों है । चलनेवाला तो संसार है ।