सांसारिक वस्तुकी प्राप्ति समय पाकर होगी;
क्योंकि वह हमारे पास नहीं है । अतः उसके पास जाना पड़ेगा या उसे अपने पास लाना
पड़ेगा, उसमें परिवर्तन करना पड़ेगा अथवा उसका निर्माण करना पड़ेगा, तब वह वस्तु
मिलेगी । संसारके लिये तो यह कायदा है, पर परमात्माके लिये यह कायदा नहीं है । जो नित्य-निरन्तर मौजूद हैं, उसे ही प्राप्त करना है । पर
उधर दृष्टि न रहनेसे वह दूर दीखता है, उसमें और हमारेमें भेद दीखता है । इसका कारण यह है कि नाशवान्की तरफ हमारी दृष्टि चली गयी
। अब मान लें कि परमात्मा सब देश और कालमें हैं,
सब वस्तुओंमें हैं और खास अपनेमें हैं । शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि अपने
नहीं हैं । ये सब परमात्माके हैं । जो अपने नहीं हैं, उन्हें अपना मान लेनेसे जो
अपने हैं, वे अपने नहीं दीखते । गीतामें भगवान् कहते हैं‒‘यो मां
पश्यति सर्वत्र (गीता ६/३०) ‘जो मुझे सब जगह
देखता है’, और ‘मया ततमिदं सर्वम्’ (गीता ९/४)
‘यह जो दीखता है, इसमें मैं हूँ’ तथा ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८/६१)
‘मैं सब प्राणियोंके हृदयमें विराजमान हूँ’ और
‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५/१५) ‘मैं सबके हृदयमें पूरा-का-पूरा अच्छी तरह प्रविष्ट हूँ ।’
यह जाननेयोग्य तत्त्व हृदयमें विराजमान है‒‘हृदि सर्वस्य
विष्ठितम्’ (गीता १३/१७) । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, पुरुष, पण्डित,
मूर्ख, पशु, पक्षी‒कोई भी क्यों न हो, सबमें परमात्मा हैं । वे परमात्मा सबके हैं
और परम सुहृद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५/२९)
। एक विलक्षण बात है कि वे परमात्मा सबको निरन्तर अपनी
तरफ खींच रहे हैं, बुला रहे हैं । इसका क्या पता ? इसका पता बड़ा प्रत्यक्ष है कि किसी भी परिस्थिति, अवस्थामें आपको वे टिकने नहीं
देते । आप किसी भी समुदायमें रहो, किसी भी वस्तुसे सम्बन्ध जोड़ो‒वह नहीं
टिकेगा । किसीके साथ भी भगवान् टिकने नहीं देते; क्योंकि तुम इनके साथी नहीं हो
आर वे तुम्हारे साथी नहीं हैं । बालकपन छूट जाय तो हम जवानीको पकड़ लेते
हैं, जवानी गयी तो बुढ़ापेको पकड़ लेते हैं । आप पकड़ते हो
और भगवान् छुड़ाते हैं । यह भगवान्का क्रियात्मक उपदेश है । एक तो कहकर
बताया जाता है और एक करके बताया जाता है । तो वे शास्त्रोंके, सन्तोंके द्वारा
कहते ही हैं और करते यह हैं कि आपको किसीके साथ टिकने नहीं देते । मानो कहते है कि
मेरी तरफ ही आओ, और कहीं मत टिको, और किसीको अपना मत मानो; क्योंकि वास्तवमें ये
तुम्हारा हैं नहीं, मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो । प्रश्न‒जो
दिखायी देता है, इसमें परमात्मा हैं या जो दिखायी देता है, वह परमात्मा ही हैं ?
दोनोंमें कौन-सा सही है ? उत्तर‒दोनों ही सही हैं । देखो, यदि प्रकृति और पुरुष (परमात्मा और उनकी शक्ति)‒ये
दो मानते हो, तब तो संसारमें परमात्मा हैं । और यदि एक परमात्माको ही मानते हो, तब
परमात्मा ही हैं । साधनमें कौन-सा आसान है, इसमें साधककी धारणा है । यदि उसकी
धारणा यह है कि सब कुछ परमात्मा ही हैं, तो ठीक है । पर हरेकके लिये यह बात कठिन
है; क्योंकि जो दिखायी देता है, वह तो एकदम बदलता है और परमात्मा बदलते नहीं, तो
फिर यह बदलनेवाला परमात्मा कैसे ?‒ऐसी शंका अधिक हो सकती है । इसलिये उसमें
परमात्मा हैं‒ऐसा माननेमें शंका कम होती है । ये दो ही नहीं, चार बाते हैं‒चाहे तो
संसारमें परमात्माको मान लो, चाहे संसारको परमात्मा ही मान लो और चाहे यह संसार
परमात्माका है, ऐसा मान लो । सबका नतीजा एक ही होगा । सबमें
परमात्मा है‒यह बात सुगम पड़ेगी । इससे भी सुगम यह बात पड़ेगी कि संसारमात्र
परमात्माका है; इसके मालिक परमात्मा हैं‒ऐसा मानकर सबकी सेवा करो । खास बात है कि लक्ष्य परमात्माका
होना चाहिये, फिर सब ठीक हो जायगा । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒ ‘तात्त्विक-प्रवचन’ पुस्तकसे |