।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                                         




           आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७७, मंगलवा

प्रेम


प्रेमी भक्तकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही, प्रत्युत केवल भगवान्‌ ही रहे अर्थात् प्रेमीके रूपमें साक्षात् भगवान्‌ ही हैं‘तस्मिंतज्जने भेदाभावात्’ (नारद ४१) (अध्याय ७/१८ परिशिष्ट भाव)

उस (महात्मा भक्त)-का भगवान्‌के साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाता है, जिससे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति (जागृति) हो जाती है । इस प्रेमकी जागृतिमें ही मनुष्यजन्मकी पूर्णता है । (अध्याय ७/३० अध्यायका सार)

भगवान्‌ ही मेरे हैं और मेरे लिये हैंइस प्रकार भगवान्‌में अपनापन होनेसे स्वतः भगवान्‌में प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसका स्मरण अपने-आप और नित्य-निरन्तर होता है । (अध्याय ८/१४ परिशिष्ट भाव)

जैसे लोभी व्यक्तिको जितना धन मिलता है, उतना ही उसको थोड़ा मालूम देता है और उसकी धनकी भूख उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, ऐसे ही अपने अंशी भगवान्‌को पहचान लेनेपर भक्तमें प्रेमकी भूख बढ़ती रहती है, उसको प्रतिक्षण वर्धमान, असीम, अगाध, अनन्त प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है । यह प्रेम भक्तिकी अन्तिम सिद्धि है । इसके समान दूसरी कोई सिद्धि है ही नहीं । (अध्याय ८/१५)

सबसे विलक्षण शक्ति भगवत्प्रेममें है । परन्तु मुक्ति (स्वाधीनता)-में सन्तोष करनेसे वह प्रेम प्रकट नहीं होता । जड़ताके सम्बन्धसे ही परवशता होती है और मुक्त होनेपर वह परवशता सर्वथा मिट जाती है और जीव स्वाधीन हो जाता है । परन्तु प्रेम इस स्वाधीनतासे भी विलक्षण है । स्वाधीनता (मुक्ति)-में अखण्ड आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त आनन्द है । (अध्याय ८/१९ परिशिष्ट भाव)

‘मैं केवल भगवान्‌का ही हूँ और केवल भगवान्‌ ही मेरे हैं, तथा मैं अन्य किसीका भी नहीं हूँ और अन्य कोई भी मेरा नहीं है ।’ ऐसा होनेसे भगवान्‌में अतिशय प्रेम हो जाता है; क्योंकि जो अपना होता है, वह स्वतः प्रिय लगता है । प्रेमकी जागृतिमें अपनापन ही मुख्य है । (अध्याय ११/५५)

एकमात्र भगवान्‌में प्रेम होनेसे भक्तको भगवान्‌के साथ नित्य-निरन्तर सम्बन्धका अनुभव होता है, कभी वियोगका अनुभव होता ही नहीं । इसीलिये भगवान्‌के मतमें ऐसे भक्त ही वास्तवमें उत्तम योगवेत्ता हैं । (अध्याय १२/२)

प्रेम (भक्ति) ज्ञानसे भी विलक्षण है । ज्ञान भगवान्‌तक नहीं पहुँचता, पर प्रेम भगवान्‌तक पहुँचता है । ज्ञानका अनुभव करनेवाला तो स्वयं होता है, पर प्रेमका अनुभव करनेवाले और ज्ञाता भगवान्‌ होते हैं ! भगवान्‌ ज्ञानके भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेमके भूखे हैं । मुक्त होनेपर तो ज्ञानयोगी सन्तुष्ट, तृप्त हो जाता है (गीता ३/१७), पर प्रेम प्राप्त होनेपर भक्त सन्तुष्ट नहीं होता, प्रत्युत उसका आनन्द उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है । अतः आखिरी तत्त्व प्रेम है, मुक्ति नहीं । (अध्याय १२/२ परिशिष्ट भाव)

ज्ञानमें परमात्मासे दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर अभिन्नता (मिलन) नहीं होती । परन्तु प्रेममें दूरी, भेद और अभिन्नतातीनों ही मिट जाते हैं । इसलिये वास्तविक अद्वैत प्रेममें ही है । (अध्याय १२/२ परिशिष्ट भाव)

प्रेममें इतनी शक्ति है कि इसमें भक्त भगवान्‌का भी इष्ट हो जाता है । (अध्याय १२/२ परिशिष्ट भाव)

प्रेम मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी चीज है ! (अध्याय १२/२ परिशिष्ट भाव)

मुक्त होनेपर संसारकी कामना तो मिट जाती है, पर प्रेमकी भूख नहीं मिटती । (अध्याय १५/४ परिशिष्ट भाव)

जो मुक्तिमें नहीं अटकता, उसमें सन्तोष नहीं करता, उसको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होती है‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८/५४) (अध्याय १५/४ परिशिष्ट भाव)

('साधक-संजीवनी' पुस्तकसे)