मात्र जीव परमात्माके अंश हैं, इसलिये मात्र जीवोंकी
अन्तिम इच्छा प्रेमकी ही है । प्रेमकी इच्छा सार्वभौम इच्छा है । प्रेमकी प्राप्ति
होनेपर मनुष्यजन्म पूर्ण हो जाता है, फिर कुछ बाकी नहीं रहता
। (अध्याय १५/७ परिशिष्ट भाव) परमात्माको अपना माननेके सिवाय प्रेम-प्राप्तिका और कोई उपाय
है ही नहीं । प्रेम यज्ञ, दान, तप,
तीर्थ, व्रत आदि बड़े-बड़े
पुण्यकर्मोंसे नहीं मिलता, प्रत्युत भगवान्को अपना माननेसे मिलता
है । (अध्याय १५/२० अध्यायका सार) जब साधक भक्तका भगवान्में प्रेम हो जाता है, तब उसको भगवान् प्राणोंसे
भी प्यारे लगते हैं । प्राणोंका मोह न रहनेसे उसके प्राणोंका आधार केवल भगवान् हो जाते
हैं । (अध्याय १६/३) विवेकपूर्वक जड़ताका त्याग करनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार
शेष रह सकता है,
जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर
त्याज्य वस्तुका संस्कार नहीं रहता; क्योंकि भक्त त्याग नहीं
करता, प्रत्युत सबको भगवान्का स्वरूप मानता है‒‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९/१९) । (अध्याय १८/५४ परिशिष्ट भाव) प्रेमकी प्राप्ति विवेकसाध्य नहीं है, प्रत्युत विश्वाससाध्य
है । विश्वासमें केवल भगवत्कृपाका ही भरोसा है । इसलिये जिसके भीतर भक्तिके संस्कार
होते हैं, उसको भगवत्कृपा मुक्तिमें सन्तुष्ट नहीं होने देती,
प्रत्युत मुक्तिके रस (अखण्डरस)-को फीका करके प्रेमका रस (अनन्तरस) प्रदान कर देती है । (अध्याय १८/५४ परिशिष्ट भाव) भगवान्में रति या प्रियता प्रकट होती है‒अपनेपनसे । परमात्माके
साथ जीवका अनादिकालसे स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है । अपनी चीज स्वतः प्रिय लगती है । अतः
अपनापन प्रकट होते ही भगवान् स्वतः प्यारे लगते हैं । प्रियतामें कभी समाप्त न होनेवाला
अलौकिक, विलक्षण आनन्द है । वह आनन्द प्राप्त होनेपर मनुष्यमें
स्वतः निर्विकारता आ जाती है । फिर काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर आदि कोई भी विकार
पैदा हो ही नहीं सकता । (अध्याय १८/५५ टिप्पणी) प्रेमकी दो अवस्थाएँ होती हैं‒(१) कभी भक्त प्रेममें डूब जाता है, तब प्रेमी और प्रेमास्पद
दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं और (२)
कभी भक्तमें प्रेमका उछाल आता है, तब प्रेमी और
प्रेमास्पद एक होते हुए भी लीलाके लिये दो हो जाते हैं । (अध्याय
१८/५५ परिशिष्ट भाव) प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों अभिन्न रहते हैं
। वहाँ भिन्नता कभी हो ही नहीं सकती । (अध्याय १८/५७ विशेष बात) भगवान् पूर्ण है, उनका प्रेम भी पूर्ण है और परमात्माका
अंश होनेसे जीव स्वयं भी पूर्ण है । अपूर्णता तो केवल संसारके सम्बन्धसे ही आती है
। इसलिये भगवान्के साथ किसी भी रीतिसे रति हो जायगी तो वह पूर्ण हो जायगी,
उसमें कोई कमी नहीं रहेगी । (अध्याय १८/५७ विशेष
बात) योग और वियोगमें प्रेम-रसकी वृद्धि होती है । यदि सदा योग ही
रहे, वियोग न हो, तो प्रेमरस बढ़ेगा नहीं,
प्रत्युत अखण्ड और एकरस रहेगा । (अध्याय १८/५७
टिप्पणी) प्रेम-रस अलौकिक है, चिन्मय
है । इसका आस्वादन करनेवाले केवल भगवान् ही हैं । प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों
ही चिन्मय-तत्त्व होते हैं । कभी प्रेमी प्रेमास्पद बन जाता है
और कभी प्रेमास्पद प्रेमी हो जाता है । अतः एक चिन्मय-तत्त्व
ही प्रेमका आस्वादन करनेके लिये दो रूपोंमें हो जाता है । (अध्याय
१८/५७ विशेप बात) प्रेमके अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते हैं । (अध्याय १८ /५७ विशेषबात) विपरीत-से-विपरीत अवस्थामें
भी प्रेमी भक्तकी प्रसन्नता अधिक-से-अधिक
बढ़ती रहती है; क्योंकि प्रेमका स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है
। (अध्याय १८/६६ विशेष बात) ‒साधक-संजीवनी' पुस्तकसे संकलित |