।। श्रीहरिः ।।

                                                                       


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७८ बुधवार

      सबसे सुगम परमात्मप्राप्ति

‘मैं ब्रह्म हूँ’‒यह अनात्मा (असत्‌, जड़, उत्पत्ति-विनाशशील)-का तादात्म्य है । कारण कि अनात्मके तादात्म्यके बिना, अनात्मकी सहायताके बिना केवल आत्मतत्त्वसे परमात्माका चिन्तन, ध्यान, समाधि आदि हो ही नहीं सकते । चिन्तन, ध्यान आदि करेंगे तो अनात्माकी पराधीनता स्वीकार करनी ही पड़ेगी, अनात्माका आदर करना ही पड़ेगा । जिसकी सहायता लेंगे, उसका त्याग भी कैसे होगा और अनात्माका त्याग किये बिना आत्मतत्त्वका अनुभव भी कैसे होगा ? आत्मतत्त्वका अनुभव तो अनात्मासे असंग होनेपर ही होगा ।

जिसकी प्रतीति होती है, वह दृश्य (शरीर) भी हमारा स्वरूप नहीं है और जिसका भान होता है, वह अहम् भी हमारा स्वरूप नहीं है । अहम्‌को साथमें रखते हुए साधन करेंगे तो नयी अवस्थाकी प्राप्ति तो हो सकती है, पर अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती । अवस्थातीत तत्त्वकी प्राप्ति अहम्‌का अभाव होनेपर ही होती है । अहम्‌के रहते हुए यह अभिमान हो सकता है कि ‘मेरेको बोध हो गया, मैं ज्ञानी हो गया, मैं जीवन्मुक्त हो गया’, पर वास्तविक बोध, तत्त्वज्ञान, जीवन्मुक्ति अहम्‌का अभाव होनेपर ही होती है । तात्पर्य है कि सत्तामात्रका ज्ञान सत्ताको ही होता है, ‘मेरेको’ नहीं होता । सत्ता तो ज्ञानस्वरूप ही है और ज्ञानका ज्ञाता कोई नहीं है; क्योंकि जब ज्ञेयकी सत्ता ही नहीं, तो फिर ज्ञाता संज्ञा कैसे ?

जाग्रत्‌ और स्वप्न-अवस्थामें अहम्‌का भाव दीखता है और सुषुप्ति-अवस्थामें अहम्‌का अभाव दीखता है । अहम्‌का भाव और अभाव‒दोनोंको चेतन-तत्त्व प्रकाशित करता है । जो भाव और अभावको प्रकाशित करता है, वह ‘सत्’ है तथा जिसका भाव और अभाव होता है, वह ‘असत्’ है । जैसे नेत्र प्रकाश और अन्धकार‒दोनोंको प्रकाशित करता है, ऐसे ही विवेक अहम्‌के भाव और अभाव‒दोनोंको प्रकाशित करता है । अहम्‌का भाव मिटकर अभाव रह जाय, जड़ता मिटकर चेतन रह जाय तो विवेक बोधमें परिणत हो जाता है ।

परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति भी सुगम है और अहम्‌की निवृत्ति भी सुगम है । कारण कि परमात्मतत्त्वकी नित्यप्राप्ति है और अहम्‌की नित्यनिवृत्ति है । अहम्‌को मिटानेका प्रयत्न करनेसे अहम्‌का विवेचन तो होता है, पर अहम्‌ मिटता नहीं । परन्तु सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मसत्ताका अनुभव होनेसे अहम्‌ मिट जाता है । इसलिये गीतामें भगवान्‌ने कहा है‒‘मया ततमिदं सर्वम्’ (९/४), ‘यह सब संसार मेरेसे व्याप्त है’ ।

तात्पर्य है कि संसारमें सत्ता (‘है’) रूपसे एक सम, शान्त, सद्‌घन, चिद्‌घन, आनन्दघन परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है[*] । जिसका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है, उस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । अज्ञानके कारण संसारमें जो सत्ता प्रतीत हो रही है, वह भी परमात्मतत्त्वकी सत्ताके कारण ही है‒

जासु  सत्यता  तें जड़ माया ।

भास सत्य इव मोह सहाया ॥

(मानस १/११७/४)



[*] भगवान्‌ने गीतामें जीवात्माके लिये भी ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (२/१७) कहा है और परमात्माके लिये भी ‘येन सर्वमिदं ततम्’ (८/२२; १८/४६) कहा है । तात्पर्य है कि जीवात्मा और परमात्मा‒दोनोंकी सर्वत्र परिपूर्ण सत्ता एक ही है ।