मनुष्यका ढाँचा (बनावट) और
तरहका है तथा कुत्तेका ढाँचा और तरहका है, पर सत्ता दोनोंमें एक ही है । वह सत्ता न तो
स्त्री है, न पुरुष है, न देवता है, न पशु-पक्षी
है, न भूत-प्रेत है । ऐसे ही सत्ता न ज्ञानी है, न अज्ञानी है; न मूर्ख है,
न विद्वान् है; न निर्बल है, न बलवान् है; न साधु है, न गृहस्थ है; न ब्राह्मण
है, न शूद्र है; न हलकी है, न भारी है; न छोटी है, न बड़ी है; न सूक्ष्म है, न
स्थूल है । चाहे स्त्री हो, चाहे पुरुष हो, चाहे देवता हो, चाहे पशु हो, चाहे
भूत-प्रेत हो, चाहे ज्ञानी हो, चाहे अज्ञानी हो, चाहे कसाई हो, चाहे सन्त-महात्मा हो, चाहे तत्त्वज्ञानी हो, चाहे
भगवत्प्रेमी हो, सत्ता सबमें एक ही है । वह चिन्मय सत्ता
न बदलती है, न मिटती है, न आती है, न जाती है । वह सत्ता हमारा स्वरूप है; बस, इतनी ही बात है । इससे अतिरिक्त
कोई बात नहीं है । शास्त्रमें, वेदमें,
वेदान्तमें इससे बढ़िया बात क्या आती है ? ब्रह्मकी बात कहे तो वह भी सत्ता ही है ।
हमारेसे गलती
यही होती है कि उस सत्ताके साथ कुछ-न-कुछ मिला लेते हैं । अगर कुछ न मिलायें तो जीवन्मुक्त ही हैं ! कुछ भी मिलायेंगे
तो बँध जायँगे । मैं स्त्री हूँ तो बँध गये, मैं पुरुष हूँ तो बँध गये, मैं
बालक हूँ तो बँध गये, मैं जवान हूँ तो बँध गये, मैं बूढ़ा हूँ तो बँध गये, मैं रोगी
हूँ तो बँध गये, मैं निरोग हूँ तो बँध गये, मैं समझदार हूँ तो बँध गये; मैं बेसमझ
हूँ तो बँध गये ! चिन्मय सत्ताके साथ कुछ भी मिलाना बन्धन है और कुछ भी न मिलाना
मुक्ति है । चिन्मय
सत्ताके सिवाय हमारा और कोई स्वरूप है ही नहीं । यही तत्त्वज्ञान है । इसीको
ब्रह्मज्ञान कहते हैं । कोई भले ही षट्शास्त्र पढ़ ले, चार वेद पढ़ ले, अठारह
पुराण पढ़ ले, हजारों वर्षोंतक पढ़ाई कर ले, पर इससे बढ़कर कोई बात मिलेगी नहीं ।
इससे बढ़कर कोई बात है ही नहीं, मिले कहाँसे ? इसलिये सन्तोंने कहा है‒ बावर बेद बिदुष बावरियो, पोथी
पुस्तक फंदा । भोला नर मांही
उलझाना, उलट न देखे अंधा ॥ प्रश्न‒जीवात्माकी सत्ता
और परमात्माकी सत्ता‒दोनों एक हैं य अलग-अलग ? उत्तर‒सत्ता एक ही है;
परन्तु सत्तामें अहम् (‘मैं’)-को मिलानेसे सत्तामें भेद दीखने लग गया । कारण कि अहम्से परिच्छिन्नता
पैदा होती है और परिच्छिन्नतासे सम्पूर्ण भेद पैदा होते हैं । वास्तविक सत्ता
अहंरहित होनेसे अपरिच्छिन्न है । उस सत्तामें सबकी स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है;
परन्तु अहम्की स्वीकृतिके कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा है । अहम्को जीवित न रखना साधकका खास काम है । ‘मैं ब्रह्म हूँ’‒यह भाव अहम्को जीवित रखता है । कारण कि ‘मैं’ ब्रह्म नहीं है और ब्रह्ममें ‘मैं’ नहीं है । ‘मैं’ में ‘हूँ’ को मिलाना और ‘हूँ’ को ‘मैं’ में मिलाना ‘चिज्जडग्रन्थि’ है । यह ‘मैं’ अर्थात् अहम् केवल माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं । इसलिये इसको जहाँ भी लगायें, वहीं प्रवेश कर जाता है । जड़में प्रवेश करके कहता है कि ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं धनवान् हूँ’ आदि तथा चेतनमें प्रवेश करके कहता है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’, ‘मैं शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा हूँ’ आदि । परन्तु दोनोंमें अहम् वही-का-वही है । |