।। श्रीहरिः ।।

                                                                     


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७८ सोमवार

      सबसे सुगम परमात्मप्राप्ति

परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके समान सुगम और जल्दी सिद्ध होनेवाला कार्य कोई है नहीं, था नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं ! परिश्रम और देरी तो उस वस्तुकी प्राप्तिमें लगती है, जो है नहीं, प्रत्युत बनायी जाय । जो स्वतः स्वाभाविक विद्यमान है, उसकी प्राप्तिमें परिश्रम और देरी कैसी ? जैसे, गंगाजीको पृथ्वीपर लानेमें बहुत जोर पड़ा और अनेक पीढियाँ खतम हो गयीं, पर अब ‘गंगाजी हैं’‒ऐसा जाननेमें क्या जोर पड़ता है ? क्या देरी लगती है ? परन्तु स्वयंकी भूख, लगन न हो तो यह सुगमता किस कामकी ? अगर स्वयंकी लगन हो तो सब-के-सब मनुष्य सुगमतापूर्वक और तत्काल जीवन्मुक्त हो सकते हैं !

परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति, जीवन्मुक्ति सबसे सुगम कैसे है‒इस विषयको समझनेकी चेष्टा करें । प्रत्येक मनुष्यका यह अनुभव है कि ‘मैं हूँ’ । बचपनसे लेकर आजतक शरीर सर्वथा बदल गया, पर मैं वही हूँ और आगे वृद्धावस्थामें शरीर बदलनेपर भी मैं वही रहूँगा । शरीर बदलेगा, पर मैं नहीं बदलूँगा । तात्पर्य है कि शरीरमें परिवर्तन होनेपर भी सत्तामें परिवर्तन नहीं होता । हम शरीरको छोड़कर दूसरी योनियोंमें भी जायँगे, तो भी सत्ता नहीं बदलेगी अर्थात्‌ हम वही रहेंगे । अगर हम देवता बन जायँ तो भी हम वही रहेंगे, पशु-पक्षी बन जायँ तो भी हम वही रहेंगे, भूत-प्रेत-पिशाच बन जायँ तो भी हम वही रहेंगे । स्थावर-जंगम किसी भी योनिमें जायँ, स्वयंकी सत्ता निरन्तर ज्यों-की-त्यों रहती है ।

जाग्रत्‌, स्वप्न, सुषुप्ति‒तीनों अवस्थाओंमें हम वही रहते हैं । सुषुप्तिसे उठनेपर हम कहते हैं कि मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ भी पता नहीं था । परन्तु ‘मेरेको कुछ पता नहीं था’‒इसका तो पता तो था ही । अतः सुषुप्तिमें भी हमारी सत्ता सिद्ध होती है । सुषुप्तिकी तरह प्रलय-महाप्रलय होते हैं । प्रलय-महाप्रलयमें भी सब जीवोंकी सत्ता रहती है । जैसे सुषुप्तिसे जाग्रत्‌में आते हैं, ऐसे ही जीव प्रलय-महाप्रलयसे सर्ग-महासर्गमें आते हैं । तात्पर्य है कि महासर्ग और महाप्रलयमें, सर्ग और प्रलयमें, जन्म और मृत्युमें स्वयंकी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है । वह चिन्मय सत्ता (होनापन) ही हमारा स्वरूप है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम् हमारा स्वरूप नहीं है; क्योंकि ये सब दृश्य हैं ।

शरीर बदलता है, बुद्धि बदलती है, भाव बदलते हैं, सिद्धान्त बदलते हैं, मान्यता बदलती है, देश बदलता है, काल बदलता है, वस्तु बदलती है, व्यक्ति बदलता है, अवस्था बदलती है, परिस्थिति बदलती है, घटना बदलती है, सब कुछ बदलता है, पर सत्ता नहीं बदलती । सबका संयोग और वियोग होता है, पर सत्ताका संयोग और वियोग नहीं होता । जो बदलता है और जिसका संयोग-वियोग होता है, वह हमारा स्वरूप नहीं है । जो कभी नहीं बदलता और जिसका कभी वियोग नहीं होता, वही हमारा स्वरूप है ।