।। श्रीहरिः ।।

                                                                                


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा , वि.सं.२०७८ शुक्रवार

               एक नयी बात

जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है, जो क्रियाको उत्पन्न करनेवाला है, उसको ‘कारक’ कहते हैं । कारकोंमें कर्ता मुख्य होता है; क्योंकि सब क्रियाएँ कर्ताके अधीन होती हैं । अन्य कारक तो क्रियाकी सिद्धिमें सहायकमात्र होते हैं, पर कर्ता स्वतन्त्र होता है । कर्तामें चेतनका आभास होता है; परन्तु वास्तवमें चेतन कर्ता नहीं होता । इसलिये गीतामें जहाँ भगवान्‌ने कर्ममात्रकी सिद्धिमें अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव‒ये पाँच हेतु बताये हैं, वहाँ शुद्ध आत्मा (चेतन)-को कर्ता माननेवालेकी निन्दा की है‒

तत्रैवं सति  कर्तारमात्मानं  केवलं  तु यः ।

पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥

(१८/१६)

‘ऐसे पाँच हेतुओंके होनेपर भी जो कर्मोंके विषयमें केवल (शुद्ध) आत्माको कर्ता देखता है, वह दुष्ट बुद्धिवाला ठीक नहीं देखता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है अर्थात्‌ उसने विवेकको महत्त्व नहीं दिया है ।’

गीतामें भगवान्‌ने कहीं प्रकृतिको, कहीं गुणोंको और कहीं इन्द्रियोंको कर्ता बताया है । प्रकृतिका कार्य गुण हैं और गुणोंका कार्य इन्द्रियाँ हैं । अतः वास्तवमें कर्तृत्व प्रकृतिमें ही है । हमारे चेतन स्वरूपमें कर्तृत्व नहीं है । भगवान्‌ने कहा है‒

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥

(१३/२९)

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहङ्कारविमूढात्मा  कर्ताहमिति मन्यते ॥

(३/२७)

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।

गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥

(३/२८)

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं    यदा द्रष्टानुपश्यति ।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥

(१४/१९)

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥

(५/९)

भगवान्‌ने अपनेमें भी कर्तृत्व-भोक्तृत्वका निषेध किया है; जैसे‒

चातुर्वर्ण्यं    मया   सृष्टं    गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां    विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।

इति मां योऽभिजानाति   कर्मभिर्न स बध्यते ॥

(गीता ४/१३-१४)

‘मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है । उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू अकर्ता जान । कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते । इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।’

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।

उदासीनवदासीनमसक्तं      तेषु     कर्मसु ॥

(गीता ९/९)

‘हे धनजंय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते ।’