जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है,
जो क्रियाको उत्पन्न करनेवाला है, उसको ‘कारक’ कहते हैं । कारकोंमें कर्ता मुख्य
होता है; क्योंकि सब क्रियाएँ कर्ताके अधीन होती हैं । अन्य कारक तो क्रियाकी
सिद्धिमें सहायकमात्र होते हैं, पर कर्ता स्वतन्त्र होता है । कर्तामें चेतनका आभास होता है; परन्तु वास्तवमें चेतन कर्ता
नहीं होता । इसलिये गीतामें जहाँ भगवान्ने कर्ममात्रकी सिद्धिमें
अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव‒ये पाँच हेतु बताये हैं, वहाँ शुद्ध आत्मा
(चेतन)-को कर्ता माननेवालेकी निन्दा की है‒ तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं
तु यः । पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स
पश्यति दुर्मतिः ॥ (१८/१६) ‘ऐसे पाँच
हेतुओंके होनेपर भी जो कर्मोंके विषयमें केवल (शुद्ध) आत्माको कर्ता देखता है, वह
दुष्ट बुद्धिवाला ठीक नहीं देखता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है अर्थात्
उसने विवेकको महत्त्व नहीं दिया है ।’ गीतामें भगवान्ने कहीं
प्रकृतिको, कहीं गुणोंको और कहीं इन्द्रियोंको कर्ता बताया है । प्रकृतिका कार्य गुण हैं और गुणोंका कार्य इन्द्रियाँ हैं ।
अतः वास्तवमें कर्तृत्व प्रकृतिमें ही है । हमारे चेतन स्वरूपमें कर्तृत्व नहीं है
। भगवान्ने कहा है‒ प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः । यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ (१३/२९) प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते ॥ (३/२७) तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ (३/२८) नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं
यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ (१४/१९) इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ (५/९) भगवान्ने अपनेमें भी कर्तृत्व-भोक्तृत्वका निषेध किया है;
जैसे‒ चातुर्वर्ण्यं मया
सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां
विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ (गीता ४/१३-१४) ‘मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक
चारों वर्णोंकी रचना की गयी है । उस (सृष्टि-रचना आदि)-का कर्ता होनेपर भी मुझ
अविनाशी परमेश्वरको तू अकर्ता जान । कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है,
इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते । इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह
भी कर्मोंसे नहीं बँधता ।’ न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ (गीता ९/९)
‘हे धनजंय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते ।’ |