Jun
26
।। श्रीहरिः ।।

                                                                                 


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ कृष्ण द्वितीया , वि.सं.२०७८ शनिवार

             एक नयी बात

तात्पर्य है कि सृष्टिकी रचना, पालन, संहार आदि सम्पूर्ण कर्मोंको करते हुए भी भगवान्‌ उन कर्मोंसे लिप्त नहीं होते अर्थात्‌ उनमें कर्तापन और भोक्तापन नहीं आता । भगवान्‌का ही अंश होनेसे जीवमें भी कर्तापन और भोक्तापन नहीं आता‒

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः    

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥

(गीता १३/३१)

‘हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादी होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है । यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है ।’

दो विभाग हैं‒जड़ और चेतन । जड़-विभाग नाशवान्‌ है और चेतन-विभाग अविनाशी है । गीतामें भगवान्‌ने जड़-विभागको प्रकृति, क्षेत्र, क्षर, आदि नामोंसे कहा है और चेतन-विभागको पुरुष, क्षेत्रज्ञ, अक्षर आदि नामोंसे कहा है । ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाशकी तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं । जड़-विभाग असत्‌ है, जिसकी सत्ता ही विद्यमान नहीं है और चेतन-विभाग सत्‌ है, जिसकी सत्ता विद्यमान है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभागमें ही होती हैं । चेतन-विभागमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती । स्थूलशरीर तथा उससे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीर तथा उससे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीर तथा उससे होनेवाली स्थिरता और समाधि‒ये सभी जड़-विभागमें ही हैं । कामना, ममता, अहंता आदि सम्पूर्ण विकार जड़-विभागमें ही हैं । सम्पूर्ण पाप-ताप भी जड़-विभागमें है । पराश्रय तथा परिश्रम‒ये दोनों जड़-विभागमें हैं और भगवदाश्रय तथा विश्राम (अपने लिये कुछ न करना)‒ये दोनों चेतन-विभागमें हैं । जड़ और चेतनके विभागको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है‒‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा’ (गीता १३/३४) । इस ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं‒

अपि चेदसि पापेभ्यः   सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव    वृजिनं   सन्तरिष्यसि ॥

यथैधांसि   समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥

(गीता ४/३६-३७)

‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा । हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण (संचित, प्रारब्ध[*] तथा क्रियमाण) कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है ।’

तात्पर्य है कि चेतन-विभागमें अपनी स्वतःस्वाभाविक स्थितिका अनुभव करते ही साधक सम्पूर्ण विकारों तथा पापोंसे छूट जाता है और जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है । कारण कि जड़-विभागके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही जन्म-मरणका मूल कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (१३/२१)



[*] ज्ञान होनेपर प्रारब्ध अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति तो पैदा कर सकता है, पर सुखी-दुःखी नहीं कर सकता ।