Jun
27
।। श्रीहरिः ।।

                                                                                  


आजकी शुभ तिथि–
     आषाढ़ कृष्ण तृतीया , वि.सं.२०७८ रविवार

             एक नयी बात

यहाँ एक शंका हो सकती है कि चेतनके बिना केवल जड़में पाप-पुण्य आदि होना कैसे सम्भव है ? इसका समाधान है कि जैसे एक गाड़ीकी टक्करसे कोई मनुष्य मर जाय तो उसका दण्ड गाड़ीको न होकर उसके चालकको होता है । दुर्घटनारूप क्रिया तो गाड़ीके द्वारा ही हुई, पर उसका दण्ड उसको भोगना पड़ता है, जिसने उस गाड़ीसे अपना सम्बन्ध जोड़ा अर्थात्‌ जो उस गाड़ीका चालक (कर्ता) बना । जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है । ऐसे ही पाप-पुण्यरूप क्रिया तो जड़ (शरीर)-के द्वारा ही होती है, पर उसका फल जड़के साथ अपना सम्बन्ध माननेवाले कर्ता (चेतन)-को ही भोगना पड़ता है । तात्पर्य है कि सभी विकार जड़-विभागमें ही होते हैं, पर जड़से तादात्म्य माननेके कारण उसका परिणाम चेतनपर होता है । जैसे ज्वर शरीरमें आता है, पर शरीरसे तादात्म्य करनेके कारण मनुष्य मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया । स्वयं (चेतन)-में ज्वर नहीं आता, यदि आता तो कभी मिटता नहीं । जड़-विभागके साथ अर्थात्‌ अपरा प्रकृतिके अंश अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेनेके कारण ही अज्ञानी मनुष्य अपनेको कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है‒अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७), ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३/२१) । तात्पर्य है कि स्वयं (चेतन स्वरूप)-में कर्तापन तथा भोक्तापन बनता नहीं है, प्रत्युत वह अविवेकपूर्वक अपनेको कर्ता-भोक्ता मान लेता है । सुखलोलुपता अथवा फलेच्छाके कारण वह अपनेको कर्ता मानता है और अपनेको कर्ता माननेके कारण उसको कर्मफलका भोक्ता बनना पड़ता है । कारण कि अपनेको कर्ता मान लेनेसे वह प्रकृतिकी जिस क्रियाके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, वह क्रिया उसके लिये फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है ।

स्वयंमें लेशमत्र भी कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है‒‘नैव किंचित्करोति सः’ (गीता ४/२०), ‘नैव किंचित्करोमीति’ (गीता ५/८) । आजतक चौरासी लाख योनियोंमें जो भी क्रियाएँ की गयी हैं, उनमेंसे कोई भी क्रिया स्वयंतक नहीं पहुँची; क्योंकि स्वयंका विभाग ही अलग है और क्रियाका विभाग ही अलग है । जबतक अपने लिये ‘करना’ है, तबतक कर्तापन (अहंकार) है; क्योंकि कर्तापनके बिना अपने लिये ‘करना’ सिद्ध नहीं होता । इसलिये अपने उद्धारके लिये जो साधन किया जाता है, उससे अहंकार ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहता है । अहंकारपूर्वक किया गया कोई भी कर्म कल्याणकारक नहीं होता; क्योंकि अहंकार ही जन्म-मरणका मूल है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह क्रियाको महत्त्व न देकर स्वयंको महत्त्व दे ।

शरीरका सम्बन्ध संसारके साथ है और स्वयंका सम्बन्ध परमात्माके साथ है । शरीर प्रकृतिका अंश है और स्वयं परमात्माका अंश है । अतः स्वयं कभी शरीरस्थ (शरीरमें स्थित) हो सकता ही नहीं । परन्तु अज्ञानके कारण मनुष्य अपनेको शरीरस्थ मान लेता है । इसमें एक मार्मिक बात है कि अपनेको शरीरस्थ मान लेनेपर भी वास्तवमें स्वयं कर्ता-भोक्ता नहीं बनता‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१) । इससे सिद्ध होता है कि स्वयंका कर्ता-भोक्ता न होना साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक है । अतः साधकको कर्तृत्व-भोक्तृत्व मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं ही नहीं । गीतामें भगवान्‌ने आत्मामें भोक्तृत्वके अभावको आकाशका दृष्टान्त देकर और कर्तृत्वके अभावको सूर्यका दृष्टान्त देकर समझाया है‒

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥

(गीता १३/३२)

‘जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यंत सूक्ष्म होनेसे कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता ।’