यहाँ एक शंका हो सकती है कि चेतनके बिना केवल जड़में
पाप-पुण्य आदि होना कैसे सम्भव है ? इसका समाधान है कि जैसे एक गाड़ीकी टक्करसे कोई
मनुष्य मर जाय तो उसका दण्ड गाड़ीको न होकर उसके चालकको होता है । दुर्घटनारूप
क्रिया तो गाड़ीके द्वारा ही हुई, पर उसका दण्ड उसको भोगना पड़ता है, जिसने उस
गाड़ीसे अपना सम्बन्ध जोड़ा अर्थात् जो उस गाड़ीका चालक (कर्ता) बना । जो कर्ता होता
है, वही भोक्ता होता है । ऐसे ही पाप-पुण्यरूप क्रिया तो जड़ (शरीर)-के द्वारा ही
होती है, पर उसका फल जड़के साथ अपना सम्बन्ध माननेवाले कर्ता (चेतन)-को ही भोगना
पड़ता है । तात्पर्य है कि सभी विकार जड़-विभागमें ही होते
हैं, पर जड़से तादात्म्य माननेके कारण उसका
परिणाम चेतनपर होता है । जैसे ज्वर शरीरमें आता है, पर शरीरसे तादात्म्य
करनेके कारण मनुष्य मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया । स्वयं (चेतन)-में ज्वर
नहीं आता, यदि आता तो कभी मिटता नहीं । जड़-विभागके साथ अर्थात् अपरा प्रकृतिके
अंश अहम्के साथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेनेके कारण ही अज्ञानी मनुष्य
अपनेको कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७), ‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३/२१) । तात्पर्य है कि स्वयं (चेतन स्वरूप)-में कर्तापन तथा
भोक्तापन बनता नहीं है, प्रत्युत वह अविवेकपूर्वक अपनेको कर्ता-भोक्ता मान लेता है
। सुखलोलुपता अथवा फलेच्छाके कारण वह अपनेको कर्ता मानता
है और अपनेको कर्ता माननेके कारण उसको कर्मफलका भोक्ता बनना पड़ता है । कारण कि
अपनेको कर्ता मान लेनेसे वह प्रकृतिकी जिस क्रियाके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, वह
क्रिया उसके लिये फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है । स्वयंमें लेशमत्र भी कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है‒‘नैव किंचित्करोति सः’ (गीता ४/२०), ‘नैव किंचित्करोमीति’ (गीता ५/८)
। आजतक चौरासी लाख योनियोंमें जो भी क्रियाएँ की गयी हैं, उनमेंसे कोई भी क्रिया
स्वयंतक नहीं पहुँची; क्योंकि स्वयंका विभाग ही अलग है और क्रियाका विभाग ही अलग
है । जबतक अपने लिये ‘करना’ है, तबतक कर्तापन (अहंकार) है; क्योंकि कर्तापनके बिना
अपने लिये ‘करना’ सिद्ध नहीं होता । इसलिये अपने
उद्धारके लिये जो साधन किया जाता है, उससे अहंकार ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहता है
। अहंकारपूर्वक किया गया कोई भी कर्म कल्याणकारक नहीं होता; क्योंकि अहंकार ही
जन्म-मरणका मूल है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह क्रियाको महत्त्व न देकर स्वयंको
महत्त्व दे । शरीरका सम्बन्ध संसारके साथ है और स्वयंका सम्बन्ध
परमात्माके साथ है । शरीर प्रकृतिका अंश है और स्वयं परमात्माका अंश है । अतः
स्वयं कभी शरीरस्थ (शरीरमें स्थित) हो सकता ही नहीं । परन्तु अज्ञानके कारण मनुष्य
अपनेको शरीरस्थ मान लेता है । इसमें एक मार्मिक बात है
कि अपनेको शरीरस्थ मान लेनेपर भी वास्तवमें स्वयं कर्ता-भोक्ता नहीं बनता‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१) ।
इससे सिद्ध होता है कि स्वयंका कर्ता-भोक्ता न होना साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत
स्वतः-स्वाभाविक है । अतः साधकको कर्तृत्व-भोक्तृत्व
मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है; क्योंकि वास्तवमें
ये अपनेमें हैं ही नहीं । गीतामें भगवान्ने आत्मामें भोक्तृत्वके अभावको
आकाशका दृष्टान्त देकर और कर्तृत्वके अभावको सूर्यका दृष्टान्त देकर समझाया है‒ यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ (गीता १३/३२)
‘जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यंत सूक्ष्म
होनेसे कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें
लिप्त नहीं होता ।’ |