अभिमानके विषयमें रामायणमें आया है‒ संसृति मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥ (मानस ७/७४/३) जितनी भी आसुरी-सम्पत्ति है, दुर्गुण-दुराचार हैं, वे सब
अभिमानकी छायामें रहते हैं । ‘मैं हूँ’‒इस प्रकार जो
अपना होनापन (अहंभाव) है, वह उतना दोषी नहीं है, जितना अभिमान दोषी है ।
भगवान्का अंश भी निर्दोष है । परन्तु मेरेमें गुण हैं, मेरेमें योग्यता है,
मेरेमें विद्या है, मैं बड़ा चतुर हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं दूसरोंको समझा सकता हूँ‒इस प्रकार दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें जो विशेषता दीखती है, यह बहुत दोषी
है । अपनेमें विशेषता चाहे भजन-ध्यानसे दीखे, चाहे कीर्तनसे दीखे,
चाहे जपसे दीखे, चाहे चतुराईसे दीखे, चाहे उपकार (परहित) करनेसे दीखे, किसी भी तरहसे दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दीखती है तो यह अभिमान
है । यह अभिमान बहुत घातक है और इससे बचना भी बहुत कठिन है । अभिमान जातिको लेकर भी होता है, वर्णको लेकर भी होता है,
आश्रमको लेकर भी होता है, विद्याको लेकर भी होता है, बुद्धिको लेकर भी होता है ।
कई तरहका अभिमान होता है । मेरेको गीता याद है, मैं गीता पढ़ा सकता हूँ, मैं गीताके
भाव विशेषतासे समझता हूँ‒यह भी अभिमान है । अभिमान बड़ा पतन करनेवाला है । जो
श्रेष्ठता है, उत्तमता है, विशेषता है, उसको अपना मान लेनेसे ही अभिमान आता है । यह अभिमान अपने
उद्योगसे दूर नहीं होता, प्रत्युत भगवान्की कृपासे ही दूर होता है । अभिमानको दूर करनेका ज्यों-ज्यों उद्योग करते हैं,
त्यों-त्यों अभिमान दृढ़ होता है । अभिमानको मिटानेका कोई उपाय करें तो वह उपाय ही
अभिमान बढ़ानेवाला हो जाता है । इसलिये अभिमानसे छूटना बड़ा कठिन है ! साधकको इस विषयमें बहुत सावधान रहना चाहिये । साधकको इस बातका खयाल रखना चाहिये कि अपनेमें जो कुछ
विशेषता आयी है, वह खुदकी नहीं है, प्रत्युत भगवान्से आयी है । इसलिये उस
विशेषताको भगवान्की ही समझे, अपनी बिलकुल न समझे । अपनेमें जो कुछ विशेषता दीखती है, वह
प्रभुकी दी हुई है‒ऐसा दृढ़तापूर्वक माननेसे ही अभिमान दूर हो सकता है । मैं जैसा कीर्तन करता हूँ, वैसा दूसरा नहीं कर सकता; दूसरे
इतने हैं, पर मेरे जैसा करनेवाला कोई नहीं है‒इस प्रकार जहाँ दूसरेको अपने सामने
रखा कि अभिमान आया ! साधकको ऐसा मानना चाहिये कि मैं
करनेवाला नहीं हूँ, प्रत्युत यह तो भगवान्की कृपासे हो रहा है । जो विशेषता आयी है, वह मेरी व्यक्तिगत नहीं है । अगर
व्यक्तिगत होती तो सदा रहती, उसपर मेरा अधिकार चलता । ऐसा माननेसे ही अभिमानसे
छुटकारा हो सकता है । भगवान्की कृपा है कि वे किसीका अभिमान रहने नहीं देते । इसलिये अभिमान आते ही उसमें टक्कर लगती है । भगवान् विशेष कृपा करके चेताते हैं कि तू कुछ भी अपना मत मान, तेरा सब काम मैं करूँगा । भगवान् अभिमानको तोड़ देते हैं, उसको ठहरने नहीं देते‒यह उनकी बड़ी अलौकिक, विचित्र कृपा है । |