।। श्रीहरिः ।।

                                                              


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७८ सोमवार

          अभिमान कैसे छूटे ?


जिसमें अभिमान रह जाता है, वह राक्षस हो जाता है । हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, रावण, दन्तवक्त्र, शिशुपाल आदि सबमें अभिमान था । अभिमानके कारण वे किसीको नहीं गिनते । भगवान्‌को भी नहीं गिनते ! उनके अभिमानको दूर करनेके लिये भगवान्‌ अवतार लेते हैं और कृपा करके उनका नाश करते हैं । वास्तवमें भगवान्‌ मनुष्योंको नहीं मारते हैं, प्रत्युत उसके अभिमानको मारते हैं । जैसे फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकाते हैं, फिर चीरा लगाते हैं । ऐसे ही भगवान्‌ पहले अभिमानको बढ़ाते हैं, फिर उसका नाश करते हैं । इस विषयमें वे किसीका कायदा नहीं रखते ।

भगवान्‌का स्वभाव बड़ा विचित्र है । दूसरे मनुष्य तो हमारा कुछ भी उपकार करते हैं तो एहसान जनाते है कि तेरेको मैंने ऊँचा बनाया ! पर भगवान्‌ सब कुछ देकर भी कहते हैं‒‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’ ! भगवान्‌ यह नहीं कहते कि मैंने तेरेको ऊँचा बनाया है, प्रत्युत खुद उसके दास बन जाते हैं । इतना ही नहीं, भगवान्‌ उसको पता ही नहीं चलने देते कि मैंने तेरेको दिया है । मनुष्यके पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो कुछ है, वह सब भगवान्‌का ही दिया हुआ है । वे इतना छिपकर देते हैं कि मनुष्य इन वस्तुओंको अपना ही मान लेता है कि मेरा ही मन है, मेरी ही बुद्धि है, मेरी ही योग्यता है, मेरी ही सामर्थ्य है, मेरी ही समझ है । यह तो देनेवालेकी विलक्षणता है कि मिली हुई चीज अपनी ही मालूम देती है । अगर आँखें अपनी हैं तो फिर चश्मा क्यों लगाते हो ? आँखोंमें कमजोरी आ गयी तो उसको ठीक कर लो । शरीर अपना है तो उसको बीमार मत होने दो, मरने मत दो ।

देनेवालेकी इतनी विचित्रता है कि वे यह जनाते ही नहीं कि मेरा दिया हुआ है । इसलिये मनुष्य मान लेता है कि मैं समझदार हूँ, मैं वक्ता हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं लेखक हूँ आदि । वह अभिमान कर लेता है कि मैं इतना जप करता हूँ, इतना भजन करता हूँ, इतना ध्यान करता हूँ, इतना पाठ करता हूँ आदि । विचार करना चाहिये कि यह किस शक्तिसे कर रहा हूँ ? यह शक्ति कहाँसे आयी है ? अर्जुन वही थे, गाण्डीव धनुष और बाण भी वही थे, पर डाकूलोग गोपियोंको ले गये, अर्जुन कुछ नहीं कर सके‒‘काबाँ लूटी गोपिका, वे अर्जुन वे बाण’ । अर्जुनने महाभारत-युद्धमें विजय कर ली तो यह उनका बल नहीं था, प्रत्युत जो उनके सारथी बने थे, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णका बल था । गीतामें भगवान्‌ने कहा भी है‒‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ (गीता ११/३३) ‘ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं । हे सव्यसाचिन् ! तुम निमित्तमात्र बन जाओ ।’

सन्तोंकी वाणीमें एक बड़ी विचित्र बात आयी है कि भगवान्‌ने संसारको मनुष्यके लिये बनाया और मनुष्यको अपने लिये बनाया । तात्पर्य है कि मनुष्य मेरी भक्ति करेगा तो संसारकी सब वस्तुएँ उसको दूँगा ! उसको किसी बातकी कमी रहेगी ही नहीं ! सदाके लिये कमी मिट जायगी ! पर वह भक्ति न करके अभिमान करने लग गया ! अभिमान भगवान्‌को सुहाता नहीं‒

ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च ।

(नारदभक्तिसूत्र २७)

        ‘ईश्वरका भी अभिमानसे द्वेषभाव है और दैन्यसे प्रियभाव है ।’