सुनहु राम कर सहज सुभाऊ । जन अभिमान न
राखहिं काऊ ॥ संसृत मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥ ताते करहिं कृपानिधि दूरी । सेवक पर ममता अति भूरी ॥ (मानस, उत्तरकाण्ड ७४/३-४) भगवान् अभिमानको दूर करते हैं, पर
मनुष्य फिर अभिमान कर लेता है ! अभिमान करते-करते उम्र बीत जाती है ! इसलिये हरदम ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ पुकारते रहो और भीतरसे इस बातका
खयाल रखो कि जो कुछ विशेषता आयी है, भगवान्से आयी है । यह अपने घरकी नहीं है ।
ऐसा नहीं मानोगे तो बड़ी दुर्दशा होगी ! यह मानवजन्म भगवान्का ही दिया हुआ है । भगवान्ने मनुष्यको
तीन शक्तियाँ दी हैं‒करनेकी शक्ति, जाननेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । करनेकी शक्ति दूसरोंका हित करनेके लिये दी है, जाननेकी शक्ति
अपने-आपको जाननेके लिये दी है और माननेकी शक्ति भगवान्को माननेके लिये दी है ।
परन्तु गलती तब होती है, जब मनुष्य इन तीनों शक्तियोंको अपने लिये लगा देता है ।
इसलिये वह दुःख पा रहा है । बल, बुद्धि, योग्यता आदि अपने दीखते ही अभिमान
आता है । मैं ब्राह्मण हूँ‒ऐसा माननेपर ब्राह्मणपनेका अभिमान आ जाता है । मैं
धनवान् हूँ‒ऐसा माननेपर धनका अभिमान आ जाता है । मैं विद्वान् हूँ‒ऐसा माननेपर
विद्याका अभिमान आ जाता है । जहाँ मैंपनका आरोप किया,
वहीं अभिमान आ जाता है । इसलिये भीतरसे हरदम भगवान्को पुकारते रहो ।
अपनेमें योग्यता प्रत्यक्ष दीखती है, इसलिये अभिमानसे बचना बहुत कठिन होता है । मनुष्यको
प्रत्यक्ष दीखता है कि मैं अधिक पढ़ा-लिखा हूँ, मैं गीता जाननेवाला हूँ, मैं कीर्तन
करनेवाला हूँ, इसलिये वह फँस जाता है । अगर यह दीखने लग
जाय कि सब केवल भगवान्की कृपासे हो रहा है तो निहाल हो जाय ! ऐसा चेत भी भगवान्की
कृपासे ही होता है । जिनको चेत न हो, उनपर दया आनी चाहिये । वे भी चेतेंगे, पर
देरीसे ! नारदजी महाराज भगवान्के भक्त थे, पर उनको भी अभिमान हो गया
। इतना अभिमान हो गया कि भगवान्को ही शाप दे दिया‒ भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल
आपन कीन्हा ॥ बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु
धरहु श्राप मम एहा ॥ कपि आकृति तुम किन्ही हमारी ।
करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥ मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी । नारि
बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥ (मानस, बालकाण्ड १३७/३-४) नारदजीने कहा कि बन्दर आपकी सहायता करेंगे‒‘करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी’ तो यह शाप हुआ कि वरदान ? यह तो वरदान हुआ ! इसलिये कहा है‒‘साधु ते होइ न कारज हानी’ (मानस, सुन्दर॰६/२) । शापके कारण भगवान्का अवतार हुआ और विविध लीलाएँ हुईं, जिनको गा-गाकर लोगोंका कल्याण हो रहा है । तात्पर्य है कि नारदजीका शाप लोगोंके कल्याणका उपाय हो गया ! ऐसे ही भगवान्का भी क्रोध वरदानके समान कल्याणकारी होता है‒‘क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः’ । |