एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य । तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति ॥ एक दुःख गया तो दूजा तैयार । दूजा गया तो तीजा तैयार । इस प्रकार दु:ख-पर-दुःख पनपता ही रहता है; क्योंकि दुःखालय है यह
। दु:ख-ही-दुःख होता है । वस्त्रालय
होता है, औषधालय होता है । ऐसे ‘दुःखालयमशाश्वतम्’ दु:खालयमें सुख ढूँढ़ते हैं । दु:खालयमें सुख कैसे मिलेगा
भाई, दुःखालयमें तो दुख-ही-दुःख है । ‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।’ सुख इसमें है
नहीं भैया ! यह दुःखालय है । ‘इमं प्राप्य भजस्व माम्’ तू मेरा भजन कर ले, पर भजन भगवान्का न करके भजन दुःखोंका ही करते हैं कि भगवान्ने हमारा दुःख नहीं
मिटाया । हमारेको बेटा नहीं दिया, हमारेको धन नहीं दिया, हमारेको नीरोगता नहीं दी, हमारेको मान-सत्कार नहीं दिया, हमारी प्रशंसा नहीं की, भगवान्ने ऐसा नहीं किया‒यह चाहना क्या है ? अधिक दुःखकी चाहना है । भगवान् कहते हैं, ‘तेरेको दिया उतना बहुत काफी है । अलग और क्यों पकड़ता है ?’ यह कहता है, ‘इतना नहीं और दुःख होना चाहिये । धन और हो जाय तो सुखी हो जायँ
।’ और हो जाय तो सत्संग भी नहीं करेगा । फिर उसमें ऐसा लिप्त हो जायगा कि भजन-ध्यान ही छूट जायगा । क्या करें ? काम-धन्धा ज्यादा आ गया, मील और खुल गयी, अब समय नहीं मिलता, भजन करनेके लिये । विमुख
होनेके लिये यह चेष्टा कम नहीं करता है । ठाकुरजी विमुख होने
नहीं देते । इसके मनकी नहीं होने देते । इसके मनकी होवे तो यह कितनी ही खुराफात (उद्दण्डता) करे । भगवान् करने नहीं देते । इसमें
यह हो जाय नाराज । जैसे पतंगे आग सुलगनेपर उसके भीतर दौड़कर प्रविष्ट होते हैं । उनको अलग कर देता
है कोई तो पतंगे बहुत नाराज होते हैं । अगर उनका वश चले तो मुकद्दमा करें उसपर कि हमारेको
आग नहीं लेने देते । आग बन्द करनेवाला उनपर करता है दया कि ये आगमें खतम हो जायँगे, परन्तु आड़ लगना उनको अच्छा नहीं लगता । ऐसे संसारके भोगोंमें, ऐश्वर्यमें रात-दिन लगे हैं । आड़ लग जाय
तो उसके साथ लड़ाई करेंगे कि मेरेको क्यों नहीं जलने दिया ? हम तो पड़ेंगे भीतर, कूदकर । ‘रहने दे भैया, कुछ दिन जी तो जा ।’ ‘ना ।’ ऐसी दशा हो रही है लोगोंकी । ऐसी दशासे बचानेके लिये
भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ो, पर जोड़ते हैं नाशवान् पदार्थोंके
साथ । आप हैं अविनाशी । अविनाशीको नाशवान् कैसे संतुष्ट करेंगे ? परन्तु वहम इतना विलक्षण पड़ा है‒‘राम-राम-राम ।’ कई बार भोगोंको भोगकर देख लिया फिर भी उधर ही जाते हैं । अब क्या मनमें रह गयी ? क्या बाकी रह गया ? वहम है कि अब सुख हो जायगा । आप नये हो गये कि पदार्थ नये हो गये, कि रिवाज नया हो गया ? क्या बात है ? अभीतक चेत नहीं हुआ । समझदार आदमी चेत जाता है कि रास्ता ठीक नहीं है । जो गया, वह भी इस तरहसे ही मार खाता है । जो गया, वो ही दुःख पाया । अब उस मार्गको तो छोड़ो भाई ! अपने भी कर लिया । इतने दिन हो गये, इतने वर्ष हो गये । और कौन-सा भोग नहीं भोगा ? और फिर क्या मनमें रह गयी भगवान् ही जाने ! |