आप कृपा करके इस बातको समझनेकी चेष्टा करें, इसका दुरुपयोग
न करें । थोड़ी गहरी बात है । वह यह है कि अपने लिये कुछ करना नहीं है । ‘अपने’ का
अर्थ है—स्वयं
अर्थात् परमात्माका अंश चेतन । स्वयंके लिये करना कुछ नहीं है । करना जितना होता
है, वह सब प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है । प्रकृतिके सम्बन्धके बिना करना है ही
नहीं । अतः जो कुछ करना है, वह सब
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके लिये करना है, संसारके लिये करना है, भगवान्के लिये
करना है; परन्तु अपने लिये कुछ करना नहीं है—यह खास सार बात है । हम जो भी कर्म करते हैं, उस कर्मका आरम्भ और अन्त होता है ।
जिसका आरम्भ और अन्त होता है, उसके साथ हमारा सम्बन्ध
नहीं है; क्योंकि स्वयंका आरम्भ और अन्त नहीं होता । अनन्त जन्मोंसे यह जीव
चला आ रहा है, पर इसका कभी आरम्भ और अन्त नहीं हुआ है । यह अनादि और अनन्त है ।
अतः इसके लिये करना नहीं होता । करना मात्र संसारके लिये होता है । मेरेको कुछ मिले—यह इच्छा होते ही बन्धन हो जाता है । मिली हुई चीज कभी अपने साथ रहनेवाली है ही नहीं । कृपा करके बस इस बातपर थोड़ा ध्यान दो । हमें कुछ भी मिल जाय, धन मिल जाय, मान मिल जाय; विद्या, पद, अधिकार मिल जाय, पर ये मिली हुई चीजें हमारे साथ रह नहीं सकतीं । परन्तु परमात्मा सबको मिले हुए हैं और सदा सबके साथ रहते हैं, कभी बिछुडते नहीं । उनको न जाननेसे ही उनका अभाव दीखता है । किसी देशमें, किसी कालमें, किसी वस्तुमें, किसी क्रियामें, किसी घटनामें, किसी परिस्थितिमें परमात्मा न हों—यह है ही नहीं, हो सकता ही नहीं । वे तो निरन्तर रहनेवाले हैं और उनको ही प्राप्त करना है । मिलने और बिछुड़नेवाली चीजोंका आश्रय लेना बड़े भारी अनर्थका कारण है । मिले हुए शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि अपने कामके हैं ही नहीं । इनको अपने लिये मानते हैं—यह बहुत बड़ी गलती है । इस विषयको ठीक तरहसे समझना चाहिये । |