भगवान् कहते हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) ‘यह जीव मेरा ही अंश है ।’ यह
जीव चेतन, अमल और सहज सुखराशि है—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी चेतन अमल सहज सुख रासी ॥’ (मानस, उत्तरकाण्ड ११७/१) । इसमें जड़ता है ही नहीं तो फिर इसके लिये क्या करना बाकी
रहा ? इसमें मल नहीं तो फिर दूर क्या करोगे ? यह सहज सुखराशि है तो फिर इसमें सुख
कहाँसे लाओगे ? मिली हुई चीजें बिछुड़नेवाली हैं । मिली
हुई चीजोंका आश्रय लेना है, आधार लेना है, उनसे सुखकी आशा रखना है, उनको महत्त्व
देना है—यह महान् पतनका कारण है । आप कृपा करके इस विषयको समझ लो तो बहुत ही आनन्दकी बात है
। मिली हुई चीज हमारे साथ रहनेवाली नहीं है; क्योंकि मिली हुई उसको कहते हैं, जो पहले नहीं थी और पीछे भी नहीं
रहेगी । परन्तु परमात्मा और उनका अंश जीवात्मा (स्वयं) पहले भी थे और पीछे
भी रहेंगे । शरीर, धन-सम्पत्ति, घर-परिवार आदि मिली हुई वस्तुओंका आश्रय लेना,
इनको महत्त्व देना खास पतनकी बात है । नित्य-निरन्तर रहनेवालेके लिये ये मिलकर
बिछुड़नेवाली वस्तुएँ क्या काम आयेंगी ? हाँ, इनका सदुपयोग किया जा सकता है ।
परन्तु इनका आश्रय लेना और इनसे सुखकी आशा रखना भूल है । खास
भूल यही होती है कि हम मिली हुई चीजसे सुख लेते हैं । इस सुखकी आसक्ति ही
बाँधनेवाली है । यह आसक्ति साधनको ऊँचा बढ़ने नहीं देती । कोई भी काम करो, उसका न करनेसे ही आरम्भ होता है और न
करनेमें ही उसकी समाप्ति होती है । अतः कर्मका आदि और अन्त होगा ही । ऐसे ही कर्म
करनेसे जो कुछ मिलेगा, वह भी आदि-अन्तवाला होगा । क्रियाका भी आरम्भ और अन्त होता
है तथा पदार्थोंका भी संयोग और वियोग होता है । क्रिया और पदार्थ—यह प्रकृति है । प्रकृतिसे सर्वथा अतीत जो परमात्मतत्त्व
है, उसीका साक्षात् अंश यह जीवात्मा है । अतः जो क्रियाओंमें और वस्तुओंमें आसक्त
है और इनसे अपनी उन्नति मानता है, वह गलतीमें है । यह बड़े भारी आश्चर्यकी बात है कि धन मिलनेसे हम अपनेको बड़ा मान लेते हैं ! अगर हम धनसे बड़े हो गये तो धन बड़ा हुआ कि हम बड़े हुए ? धनके बिना तो हम छोटे ही रहे ! धन तो आपका कमाया हुआ है । धन आपके पास आता है और चला जाता है । वह आपके पास रहेगा तो आप चले जाओगे । वह साथ रहनेवाला नहीं है । ऐसे ही विद्या, योग्यता, पद, अधिकार आदिसे जो अपनेको बड़ा मानता है, वह बहुत बड़ी गलती करता है । वास्तवमें आप खुद इतने बड़े हैं कि आपसे ही ये वस्तुएँ सार्थक होती हैं । आपसे ही रुपये सार्थक होते हैं, आपसे ही भोजन सार्थक होता है । आपसे ही कपड़े सार्थक होते है । संसारकी जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब आपसे ही सार्थक होती हैं । आप इन वस्तुओंसे अपनेको बड़ा मानते हो—यह गलती है । मिली हुई चीजसे अपना महत्त्व समझना, अपनेको बड़ा मानना बहुत बड़ी गलती है । अगर यह गलती मिट जाय तो समता अपने-आप आ जायगी; क्योंकि समतामें हमारी स्थिति स्वतः-स्वभाविक है । यह उद्योगसाध्य, कृतिसाध्य नहीं है । करनेकी आसक्तिको मिटानेके लिये ही कर्म करना है, कुछ पानेके लिये नहीं । |