हमारा मान हुआ तो उसमें हम राजी हो गये और अपमान हुआ तो हम
नाराज हो गये । थोड़ा गहरा विचार करो कि मान मिलनेसे हमें मिल क्या गया और अपमान
होनेसे हमारी क्या हानि हो गयी ? आने-जानेवाली वस्तुसे आपको कोई हानि-लाभ नहीं
होता । अनादिकालसे कई सर्ग-प्रलय, महासर्ग-महाप्रलय हुए, पर आप स्वयं वे-के-वे ही
रहे—‘भूतग्रामः स
एवायम्’ (गीता ८/१९) । ऐसे
निरन्तर रहनेवाले आपको मान मिल गया तो क्या हुआ ? और अपमान मिल गया तो क्या हुआ ?
धन मिल गया तो क्या हुआ ? और धन चला गया तो क्या हुआ ? शरीर मिल गया तो क्या हुआ ?
और शरीर चला गया तो क्या हो गया ? बीमारी आ गयी तो क्या हो गया ? और बीमारी चली
गयी तो क्या हो गया ? ये सब तो आने-जानेवाले हैं—‘आगमापायिनोऽनित्याः’ (गीता २/१४) । आने-जानेवाले पदार्थोंसे राजी
और नाराज होना बहुत बड़ी भूल है । इस भूलका अभी त्याग न हो सके तो न सही, पर इस
बातको समझ तो लें । ठीक समझ लो तो स्वतः-स्वाभाविक त्याग हो जायगा । बालक
टट्टी-पेशाब करके उसमें हाथ डालता है; क्योंकि वह समझता नहीं । परन्तु समझनेके बाद
फिर छूयेगा क्या ? छूनेपर हाथ धोयेगा । आप समझ लें कि ये मान, बड़ाई, सुख, आराम,
पद, अधिकार आदि सब मलसे भी निकृष्ट हैं । मिली हुई वस्तुओंसे केवल दूसरेका हित करना है, अपने लिये कुछ नहीं करना है । गीता स्पष्ट कहती है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (१२/४) ‘सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें जिनकी रति है, ऐसे मनुष्य मेरेको ही प्राप्त होते हैं ।’ जैसे लोभीकी धनमें, भोगीकी भोगोंमें रति (प्रीति) होती है, आकर्षण होता है, ऐसे ही हमारी रति, हमारी लगन, हमारा आकर्षण दूसरोंके हितमें होना चाहिये । सब काम दूसरोंके हितके लिये ही करना है । कारण कि अपने लिये करना बनता ही नहीं । प्रकृतिके सम्बन्धके बिना स्वयंमें कर्तापन है ही नहीं । |