संसारसे कुछ भी नहीं पाना है और केवल संसारके
हितके लिये ही करना है । स्वयंके लिये कुछ करना है ही नहीं । मनमें जो करनेकी एक
रुचि होती है, उस करनेकी रुचिको मिटानेके लिये ही करना है । अगर आप मान-सत्कार आदि
लेते रहोगे तो यह करनेकी रुचि कभी मिटेगी नहीं । अपने परिवारके सुखके लिये करो, पर उनसे यह मत चाहो कि वे
मुझे सुख देंगे । मैं परमात्माका अंश हूँ; अतः उनका दिया हुआ सुख शरीर,
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धितक ही पहुँच सकता है, मेरेतक नहीं पहुँच सकता । मैंने एक
गृहस्थाश्रमकी स्त्रीकी बात सुनी है । किसीने उससे कहा कि ये लोग तेरेको दुःख देते
हैं, तो उसने कहा कि मेरेतक दुःख पहुँचता ही नहीं । कितना ही कष्ट दे दो, निन्दा
कर दो, अपमान कर दो, वह मेरेतक पहुँचता ही नहीं । कष्ट, अपमान शरीरका होगा, निन्दा
नामकी होगी, वे चेतन-तत्त्वतक कैसे पहुँच सकते हैं ? अतः कुछ भी पानेकी इच्छा न
रखकर केवल संसारके लिये करना है । केवल संसारके लिये करनेसे आत्मज्ञान हो जायगा,
बोध हो जायगा । परमात्माकी प्राप्ति चाहो तो वह हो जायगी । मुक्ति चाहो तो मुक्ति
हो जायगी, कल्याण हो जायगा, सदा रहनेवाला लाभ हो जायगा । आपका शरीर, विद्या, बुद्धि, योग्यता आदिसे जो
कुछ भी मिला है, वह सब-का-सब संसारसे मिला है । संसारसे मिले हुएको बिना शर्त
संसारके भेंट कर दो । आप परमात्माके अंश हो; अतः आप परमात्माके शरण हो जाओ ।
उत्पन्न और नष्ट होनेवालेके शरण मत होओ, उसका आश्रय मत लो । गोस्वामी महाराज कहते हैं— एक भरोसो एक
बल एक आस
बिस्वास । एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥ (दोहावली २७७) संसार आपका है नहीं, आपको मिला ही नहीं, आपतक पहुँचा ही
नहीं । ऐसे संसारकी आशा, विश्वास, भरोसा रखना ही जीवकी जडता है, मूर्खता है— यह
बिनती रघुवीर गुसाई । और
आस-बिस्वास-भरोसो, हरौ जीव-जड़ताई ॥ (विनयपत्रिका १०३) भगवान्से प्रार्थना करो तो जडता मिट जाय अथवा केवल
दूसरोंके हितके लिये कर्म करो तो जडता मिट जाय । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि,
योग्यता आदि सब संसारके लिये हैं, अपने लिये हैं ही नहीं । उत्पन्न और नष्ट
होनेवाली चीज अनुत्पन्न तत्त्वके लिये क्या काम आयेगी ? थोड़ा विचार करो आप । यह
जीव परमात्माका अंश है, चेतन है, अमल है, सहज सुखराशि है, अविनाशी है तो इसके लिये
जड़, विनाशी चीज कैसे काम आयेगी ? विनाशी चीज तो विनाशी संसारके हितके लिये, सुखके
लिये, आरामके लिये खर्च करनेके लिये मिली है । उसको आप अपने लिये मानो तो आप जरूर
फँस जाओगे, इसमें किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है । मान-बड़ाई मिलनेसे आप राजी हो
गये—यह कितना बड़ा अँधेरा है !
कारण कि जो मिला है, वह बिछुड़ जायगा, रहेगा नहीं । शरीरको अपना मान लिया तो अब
बीमारियाँ आयेंगी; क्योंकि मूलमें भूल हो गयी । जोड़ लगाते समय पहली पंक्तिके
जोड़में ही भूल हो जाय और आगेकी पंक्तियोंमें बड़ी सावधानीसे जोड़ लगाया जाय तो क्या
वह जोड़ सही हो जायगा ? आरम्भमें ही भूल हो जाय तो फिर आगे भूल-ही-भूल होगी । एक
कहानी याद आ गयी । एक आदमीको ऊँटपर चढ़ाया और कहा कि कहीं जानेसे पहले हमारा ऊँट
तीन बार कूदेगा; अतः सावधान रहना । उसने कहा कि मैं तो पहलेमें ही कूद जाऊँगा, दो
बार कूदना बच जायगा ! अगर पहलेमें ही भूल हो गयी तो फिर भूल-ही-भूल होगी । इसलिये
पहलेमें ही भूल मत करो, शरीरको अपना मत मानो और उसके
द्वारा सबकी सेवा करो, हित करो । —‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे |