जब खटपट होती है, अनुकूलता-प्रतिकूलता होती है, तब तो उसमें
बह जाते हो और सुखी-दुःखी हो जाते हो । और फिर जब पता लगता है कि मैं मिल गया, तब
चिन्ता करते हो कि हाय-हाय मैं उससे मिल गया ! तो जिस समय उससे मिलते हो, उस समय
भी उससे मिलना कभी छोड़ते नहीं, और जिस समय उससे मिले नहीं, उस समय भी उसकी चिन्ता
करते हो । यही बीमारी है, दोनों समय आप उसको पकड़ लेते हो
। वास्तवमें आप उससे मुक्त तो आपसे-आप होते हैं । परिस्थिति, पदार्थ बेचारे तो
आपको मुक्त कर रहे हैं, पर आप उनको पकड़ लेते हो कि हमारे खटपट रहती है, खटपट
मिटती नहीं । इस तरह जिस समय खटपट नहीं होती, उस समय भी आप खटपटको पकड़े रहते हो ।
जब खटपट आती है, तब राग-द्वेष करके फँस जाते हो और जब नहीं आती, तब उसकी चिन्ता
करके उसमें फँस जाते हो हो । तो ऐसा मत करो । ऐसा करके क्यों उसमें फँसो ? भगवान् भी अर्जुनके रथ हाँकते हैं, उसका हुक्म मानते हैं ।
फिर भी भगवान्ने अर्जुनको फटकारा‒ क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं
त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ (गीता २/३) ‘हे अर्जुन ! नपुंसकताको मत प्राप्त हो,
तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती । हे परंतप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर
युद्धके लिये खड़ा हो जा ।’ अर्जुन चिन्ता करता है कि ये सब मर जायँगे, तो कुलमें पाप
फैल जायगा । पाप फैलनेसे वर्णसंकर पैदा हो जायँगे, फिर पितरोंको पिण्ड नहीं मिलेगा
। इनको मारनेसे बड़ा भारी पाप हो जायगा । भगवान् कहते हैं कि अरे, पहले ही हल्ला
क्यों करता है ? अभी हुआ कुछ नहीं, चिन्ता ऐसे ही करता है ! जो हो गया, उसकी
चिन्ता करता है अथवा जो नहीं हुआ, उसकी चिन्ता करता है, तो मुफ्तमें उड़ता हुआ तीर
अपनेपर लेता है ! जो अभी है ही नहीं, उसकी आफत पहले ही मुफ्तमें खड़ी कर दी । तो
खटपट आये तो उसमें फँस गये और चली जाय तो उसमें फँसे रहे । खटपट तो मिट जाती है, रहती नहीं, पर उसे पकड़-पकड़कर रोते हैं ।
उसे क्यों पकड़ो ? वह चली गयी तो मौज करो, आनन्द करो कि अब तो मिट गयी । खटपटमें शक्ति नहीं है रहनेकी । किसीका जवान ब्याहा हुआ बेटा मर जाय, तो मोह-आसक्तिके कारण
हृदयमें एक चोट लगती है । परन्तु वह मरता है, तब जैसी चोट लगती है, वैसी चोट
दूसरे-तीसरे दिन नहीं रहती । पर रो-रोकर, याद कर-करके उसे रखते हैं । याद करते हैं
फिर रोते हैं; इस तरह उसको पालते हैं । फिर भी वह हृदयकी चोट एक दिन मर ही जाती है
। चिन्ता-शोक मर ही जाते हैं । आप उन्हें रख सकते ही नहीं । है किसीमें ताकत कि
उन्हें रख ले ? कुछ वर्षोंके बाद तो चिन्ता-शोक बिलकुल मर जाते हैं । आपने तो
रखनेकी खूब चेष्टा की, खूब रोये, खूब दूसरोंको सुनाया कि यों था, ऐसा था, वह चला
गया । इतना शोकको पाला, फिर भी वह मर ही जाता है । मेहनत करनेपर भी नहीं रहता ।
इसलिये उसकी उपेक्षा कर दो । मर गया तो खत्म हो गया काम । अब क्या चिन्ता करें और क्यों रोवें ? तो उसी समय शान्ति हो
जाय । पर उसे पालेंगे, तो भी वह तो रहेगा नहीं । मेरी बात झूठी हो तो बोलो
। तो जो मिटनेवाली थी, मिट गयी । बस खत्म हुआ काम । मिटनेवालेके साथ मिलो मत ।
कितनी सीधी बात है । मेरी धारणामें आप जितने बैठे हो,
इसमें कोई निर्बल नहीं है, जो कि इस बातको न मान सके । आप अपनेको निर्बल मान लो,
तो मैं क्या करूँ ? इतना तो आप जानते हो कि मैं धोखा नहीं देता, आपके साथ
विश्वासघात नहीं करता । तो मेरी बातपर अविश्वास क्यों करो ? कोई धोखा होता हो तो
बता दो कि तुम्हारी बात माननेसे यह धोखा होता
है । कोई हानि हो तो बता दो । पर माननेसे लाभ होता है, इसे आप भी मानते हो और मैं
भी मानता हूँ । या तो स्वयं इसे समझनेके लिये विचार कर लो अथवा
दूसरेकी बात मान लो‒इनमेंसे एक कर लो । बुद्धिकी तीक्ष्णताकी जरूरत नहीं है ।
तीक्ष्णता सहायता कर सकती है, पर बुद्धिकी शुद्धि (एक निश्चय) जितनी सहायता करती
है, उतनी तीक्ष्णता नहीं करती । बुद्धिमें जड़ता हो या विक्षेप हो, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । पर इस विषयको
मैं समझूँ इसी तरफ लक्ष्य हो ।
वास्तवमें खटपट अपनेमें है
ही नहीं‒यही सार बात है । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
—‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे |