मनुष्यने यह समझ रखा है कि मनको कब्जेमें करना
बहुत आवश्यक है । मन नहीं लगा तो कुछ नहीं हुआ । राम-राम करनेसे क्या फायदा ? मन तो लगा ही नहीं । मन लग जाय तो सब ठीक हो जाय । परन्तु
मनका लगना या न लगना खास बात नहीं है । मनमें संसारका जो
राग है, आसक्ति है, प्रियता है, यही अनर्थका हेतु है । मन लग भी जायगा तो
सिद्धियोंकी प्राप्ति हो जायगी; परन्तु जबतक संसारमें
आसक्ति है, कल्याण नहीं होगा । जब भीतरसे राग और आसक्ति निकल जायगी, तब जन्म-मरण
छूट जायगा । दुःख होगा ही नहीं; क्योंकि राग और आसक्ति ही सब दुखोंका कारण है । पदार्थोंमें, भोगोंमें, व्यक्तियोंमें, वस्तुओंमें,
घटनाओंमें जो राग है, मनका खिंचाव है, प्रियता है, वही दोषी है । मनकी चंचलता इतनी
दोषी नहीं है । वह भी दोषी तो है, परन्तु लोगोंने केवल चंचलताको ही दोषी मान रखा है । वास्तवमें दोषी है राग, आसक्ति और
प्रियता । साधकके लिये इस बातको जाननेकी बड़ी आवश्यकता है कि प्रियता ही
वास्तवमें जन्म-मरण देनेवाली है । ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका हेतु गुणोंका संग है ।
आसक्ति और प्रियताकी तरफ तो खयाल ही नहीं है, पर चंचलताकी तरफ खयाल होता है । विशेष लक्ष्य इस बातका
रखना है कि वास्तवमें प्रियता बाँधनेवाली चीज है । मनकी चंचलता उतनी
बाँधनेवाली नहीं है । चंचलता तो नींद आनेपर मिट जाती है, परन्तु राग उसमें
रहता है । राग (प्रियता)-को लेकर वह सोता है । मेरेको इस बातका बड़ा भारी आश्चर्य है
कि मनुष्य रागको नहीं छोड़ता ! आपको रुपये बहुत अच्छे लगते हैं । आप मान-बड़ाई
प्राप्त करनेके लिये दस-बीस लाख रुपये खर्च भी कर दोगे; परन्तु रुपयोंमें जो राग
है, वह आप खर्च नहीं कर सकते । रुपयोंने क्या बिगाड़ा है ? रुपयोंमें जो राग है, प्रियता
है, उसको निकालनेकी जरूरत है । इस तरफ लोगोंका ध्यान ही नहीं है, लक्ष्य भी नहीं
है । इसलिये आप इसपर ध्यान दें । यह जो राग है, इसकी महत्ता भीतर जमी हुई है ।
वर्षोंसे सत्संग करते हैं, विचार भी करते हैं, परन्तु उन पुरुषोंका भी ध्यान नहीं
जाता कि इतने अनर्थका कारण क्या है ? व्यवहारमें, परमार्थमें, खान-पान,
लेने-देनेमें सब जगह राग बहुत बड़ी बाधा है । यह हट जाय तो आपका व्यवहार भी बड़ा
सुगम और सरल हो जाय । परमार्थ और व्यवहारमें भी उन्नति हो जाय । विशेष बात यह है कि आसक्ति और राग खराब हैं ।
ऐसी सत्संगकी बातें सुन लोगे, याद कर लोगे, पर रागके त्यागके बिना उन्नति नहीं
होगी । तो प्रश्न
आपने किया कि मनकी चंचलता कैसे दूर हो ? पर मूल प्रश्न यह होना चाहिये कि राग और
प्रियताका नाश कैसे हो ? भगवान्ने गीतामें इस रागको पाँच जगह बताया है । ‘इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ
व्यवस्थितौ ।’ (३/३४) स्वयंमें, बुद्धिमें, इन्द्रियोंमें और पदार्थोंमें‒यह पाँच जगह राग बैठा है । पाँच जगहमें भी गहरी रीतिसे देखा जाय तो मालूम होता है कि ‘स्वयं’ में जो राग है, वही शेष चारमें स्थित है । अगर ‘स्वयं’ का राग मिट जाय तो आप निहाल हो जाओगे । चित्त चाहे चंचल है, परन्तु रागके स्थानपर भगवान्में प्रेम हो जाय तो रागका खाता ही उठ जायगा । भगवान्में आकर्षण होते ही राग खत्म हो जायगा । |

