गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒‘संत समाज प्रयाग’,
जहाँ संत-संग होता है वहाँ प्रयागराज
है । और कहते हैं‒ राम भक्ति जहँ
सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म
बिचार
प्रचारा ॥ बिधि निषेधमय कलिमल हरनी । करम कथा रबिनंदनि
बरनी ॥ जैसे त्रिवेणी है प्रयागराजमें तो भगवान्की भक्ति तो
गंगाजीकी धारा है । और ‘बिधि निषेधमय कलिमल हरनी’ यह
यमुनाजी है । यमुनाजीका जल काला है और गंगाजीका जल स्वच्छ सफेद है तो भक्तिमें स्वच्छता
दीखती है । विधि-निधेषमय; करनी काली दिखती है यह यमुनाजी है । सरस्वती क्या है ? भीतर-ही-भीतर चलती है । ‘सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ।’ जहाँ ब्रह्मका विचार-विवेचन होता है तो हर एक आदमी समझता ही नहीं । वह अन्तःसलिला सरस्वती है । जहाँ
तीनों ही चलती हैं, वह त्रिवेणी है ज्ञान, भक्ति और कर्मकी । इस वास्ते कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग हैं । जहाँ समतामें स्थित हुए तो योग हो जाता है । और जहाँ
योग (समता) नहीं, वहाँ केवल कर्म, भक्ति, ज्ञान रहते हैं; परन्तु यदि उनका सम्बन्ध
भगवान्के साथ ही होता है तो वह योग होता है । ऐसे कथा चलती है तो भगवान्की कथामें
त्रिवेणी आ जाती है । प्रयागराज आ जाता है और जितने पार्षद हैं, वे आ जाते हैं । नारद आदि भक्त आ जाते हैं । ‘पुष्करादि
सरांसि च’ वे आ जाते हैं । सब भगवान्की कथामें आ जाते हैं । तो भगवान्की कथा, भगवान् अवतार लेकर आते हैं, तब न करते हैं सभी । भगवान्का
भक्तोंकी रक्षा करनेका तात्पर्य है भक्तोंके धनकी रक्षा करना । भक्तोंका धन क्या है
? भक्तोंका धन भगवान् हैं । भगवान्की बात चले वही उनकी
रक्षा है और यही उनको धनी रहने देना है । उनका धन बढ़ाना है । उनकी रक्षा करनी है सब
तरहसे । और दुष्टोंका विनाश क्या है ? दुष्टताका विनाश करना शरीरके साथ वैर नहीं है
भगवान्का । ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ भगवान् प्राणीमात्रके
सुहृद् हैं । क्या प्राणीमात्रमें दुष्ट नहीं आते हैं ? उनके भी सुहद् हैं । उनका विनाश
करना ही उनका कल्याण करना है । धर्म-स्थापना भी कल्याण करना
है । ‘पवित्राणां पवित्रं यः’ हैं भगवान् सबके लिये
। ऊपरसे भगवान्की क्रिया दो तरहकी दिखती है । जैसे ‘लालने
ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथाऽर्भके’ माता प्यार करती है तो हितभरे हाथसे थप्पड
भी मार देती है । तो बालकके ऊपर उसकी अकरुणा नहीं होती । ‘लालने ताडने मातुर्नाकारूण्यम्’‒अकृपा नहीं है । ‘तद्वदेव महेशस्य
नियन्तुर्गुणदोषयोः’ ऐसे ही गुण और दोषोंका नियन्त्रण करनेके लिये विनाश करके
कृपा करते हैं उनके ऊपर । कृपामें कोई फर्क नहीं । ऊपरकी क्रिया दो हैं । माँकी भी
पालन करनेकी और ताड़ना करनेकी क्रिया दो हैं; परन्तु हृदय एक है माँका । लालनमें भी हृदय वही । ताड़नामें भी हृदय वही रहता है
। जो पालन करनेमें और प्यार करनेमें हृदय रहता है वही मारनेमें है । परीक्षा करनी हो तो कोई माँ अपने बच्चेको मारती हो तो उस समय एक-दो चाँटा आप भी लगा दो । अरे ! क्या करता है ? तेरी मदद कर दूँ । अकेली मेहनत करती है, थोड़ी सहायता कर दूँ । तो क्या माँ समझेगी कि मेरी सहायता करता है ? लड़ेगी आपसे, कि क्यों मारता है मेरे छोरेको ? तो तू क्या कर रही है ? वह मारनेके लिये थोड़े ही मारती है, हृदयमें प्यार भरा है । वह मारती है दोष-नियन्त्रण करनेके लिये, निर्मल करनेके लिये । ऐसे ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’‒यह क्रिया दो तरहकी दीखती है; परन्तु इन सब क्रियाओंमें भगवान् वे ही हैं, वैसे ही हैं । |