।। श्रीहरिः ।।

                                                                


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७८,मंगलवार
                धनके लोभमें निन्दा


भीतरकी जो भावना होती है, उसका बड़ा भारी माहात्म्य होता है । एक आदमी बाहरकी क्रिया करता है, शरीरसे सेवा करता है, इसकी अपेक्षा भी भीतरका जो भाव है, उसकी अधिक महिमा है । बड़े दुःखकी बात है कि मनुष्योंने अपने भीतर धनको बहुत ज्यादा महत्त्व दे रखा है । वास्तवमें यह इतना महत्त्व देनेके लायक वस्तु नहीं है । शरीर इसकी अपेक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है । इस शरीरसे परिश्रम करके जो सेवा की जा सकती है, वह रुपयोंसे नहीं की जा सकती । रुपये लगा देनेका वह माहात्मय नहीं है । परन्तु आज रुपयोंका बहुत लोभ है । शरीरसे परिश्रम कर लेंगे, भूखे रह जायँगे, कहीं जाना हो तो पैदल चले जायँगे, पर पैसा खर्च नहीं करेंगे ! पैसेकी कीमत बहुत ज्यादा कर दी ! पैसोंको शरीरसे भी अधिक महत्त्व दे दिया ! शरीरसे परिश्रम करके पैसा पैदा किये जा सकते हैं, पर पैसोंसे शरीर नहीं लिया जा सकता । लाख, दस लाख, पचास लाख रुपये दे दिए जायँ, तो भी उसके बदलेमें मनुष्य-शरीर नहीं मिल सकता । मृत्युके समय अरबों-खरबों रुपये भी दे दिए जायँ तो भी मृत्युसे बच नहीं सकते । दुनियामात्रका धन दे दिया जाय, तो भी एक घड़ीभर जीना नहीं मिल सकता‒ऐसा कीमती मानव-शरीरका समय है ! वह समय यों ही बर्बाद कर देते हैं‒इसके समान कोई नुकसान नहीं है । बीड़ी-सिगरेट पीनेमें, खेल-तमाशा देखनेमें, ताश-चौपड़ खेलनेमें, बात-चीत करनेमें, गपशप लड़ानेमें, दूसरोंकी चर्चा करनेमें, निन्दा-स्तुति करनेमें, अधिक नींद लेनेमें समय खर्च कर देते हैं, यह बड़ा भारी नुकसान करते हैं । यह कोई मामूली नुकसान नहीं है । दस-बीस हजार रुपये खर्च किये जायँ, तो इसमें कोई नुकसान नहीं है । इनको छोड़कर ही मरना है । लाखों-करोड़ों हो जायँ तो भी छोड़कर मरना होगा । किसीको कुछ दे दिया, कहीं अच्छे काममें खर्च कर दिये, तो क्या बड़ी बात हुई ? यह तो छूटनेवाली वस्तु ही है ।

किसीके पास धन बहुत है तो यह कोई विशेष भगवत्कृपाकी बात नहीं है । ये धन आदि वस्तुएँ तो पापीको भी मिल जाती हैं‒‘सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय ।’ इनके मिलनेमें कोई विलक्षण बात नहीं है । एक राजा थे । उस राजाकी साधु-सेवामें बड़ी निष्ठा थी । यह निष्ठा किसी-किसीमें ही होती है । वह राजा साधु-सन्तोंको देखकर बहुत राजी होता । साधु-वेशमें कोई आ जाय, कैसा भी आ जाय, उसका बड़ा आदर करता, बहुत सेवा करता । कहीं सुन लेता कि अमुक तरफसे सन्त आ रहे हैं तो पैदल जाता और उनको ले आता, महलोंमें रखता और खूब सेवा करता । साधु जो माँगे, वही दे देता । उसकी ऐसी प्रसिद्धि हो गयी । पड़ोस-देशमें एक दूसरा राजा था, उसने यह बात सुन रखी थी । उसके मनमें ऐसा विचार आया कि यह राजा बड़ा मूर्ख है, इसको साधु बनकर कोई भी ठग ले । उसने एक बहुरुपियेको बुलाकर कहा कि तुम उस राजाके यहाँ साधु बनकर जाओ । वह तुम्हारे साथ जो-जो बर्ताव करे, वह आकर मेरेसे कहना । बहुरुपिया भी बहुत चतुर था । वह साधु बनकर वहाँ गया । वहाँके राजाने जब यह सुना कि अमुक रास्तेसे एक साधु आ रहा है, तो वह उसके सामने आया, अपने हाथोंसे उसकी खूब सेवा की ।

एक दिन राजाने उस साधुसे कहा कि ‘महाराज, कुछ सुनाओ ।’ साधुने कहा कि ‘राजन्‌ ! आप तो बड़े भाग्यशाली हो कि आपको इतना बड़ा राज्य मिला है, धन मिला है । आपके पास इतनी बड़ी फौज है । आपकी स्त्री, पुत्र, नौकर आदि सभी आपके अनुकूल हैं । इसलिये भगवान्‌की आपपर बड़ी कृपा है !’ इस प्रकार उस साधुने कई बातें कहीं । राजाने चुप करके सुन लीं ।