दो-तीन दिन बाद वह साधु (बहुरुपिया) बोला कि ‘राजन् ! अब तो हम जायँगे ।’ राजा बोला‒‘अच्छा महाराज, जैसी आपकी मर्जी ।’
राजाने उसके आगे खजाना खोल दिया और कहा कि इसमेंसे आपको जो सोना-चाँदी,
माणेक-मोती, रुपये-पैसे चाहिये, खूब ले लीजिये । उस साधुने वहाँसे अच्छा-अच्छा माल
ले लिया और ऊँटपर लाद दिया । जब वह रवाना होने लगा, तब राजाने कहा कि ‘महाराज, यह
तो आपने अपनी तरफसे लिया है । एक चाँदीका बक्सा है, वह मैं अपनी तरफसे देता हूँ ।
राजाने एक चाँदीके बक्सेको रेशमी जरीदार कपड़ेमें लपेटकर उसको दे दिया और कहा कि
‘यह मेरी तरफसे आपको भेंट है ।’ उस साधुने वह बक्सा ले लिया और वहाँसे चल दिया । वह साधु (बहुरुपिया) अपने राजाके पास पहुँचा । राजाने पूछा
कि ‘क्या-क्या लाये ?’ उसने सब बता दिया कि ‘लाखों-करोड़ोंका धन ले आया हूँ ।
राजाने समझा कि यह पड़ोसका राजा महान् मूर्ख ही है; क्योंकि इसको साधुकी पहचान ही
नहीं है कि कैसा साधु है ! यह तो बड़ा बेसमझ है ! वह बहुरुपिया बोला कि ‘एक बक्सा
मुझे राजाने अपनी तरफसे दिया है कि यह मेरी
तरफसे भेंट है ।’ राजाने कहा कि ‘ठीक है, बक्सा लाओ, उसको मैं देखूँगा ।’
उसने वह बक्सा राजाके पास रख दिया और उसकी चाबी दे दी । राजाने खोलकर देखा कि
चाँदीका एक बक्सा है, उसके भीतर एक और चाँदीका बक्सा है, फिर उसके भीतर एक और
चाँदीका छोटा बक्सा है । तीनों बक्सोंको खोलकर देखा तो
भीतरके छोटे बक्सेमें एक फूटी कौड़ी पड़ी मिली । राजाने सोचा कि यह राजा मूर्ख नहीं
है, बड़ा बुद्धिमान् है । साधु-वेशमें इसकी निष्ठा आदरणीय है । राजाने
बहुरुपियेसे पूछा कि ‘ तुमसे क्या बात हुई, सारी बात बताओ ।’ उसने कहा कि ‘एक दिन
उस राजाने मेरेसे कहा कि महाराज, कुछ सुनाओ । मैंने कहा कि तुम तो बड़े भाग्यशाली
हो । तुम्हारे पास राज्य है, धन-सम्पत्ति है, अनुकूल स्त्री-पुत्र आदि हैं,
तुम्हारेपर भगवान्की बड़ी कृपा है ।’ यह सुनकर राजा सारी बात समझ गया । तीन बक्से
होनेका मतलब था‒स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर । इनके भीतर क्या है ! भीतर तो
फूटी कौड़ी है, कुछ नहीं है । बाहरसे वेष-भूषा बड़ी अच्छी है, बाहरसे बड़े अच्छे लगते
हैं, पर भीतर कुछ नहीं है । आपपर भगवान्की बड़ी कृपा है‒यह जो बात कही, यह फूटी
कौड़ी है । यह कोई कृपा हुआ करती है ? कृपा तो यह होती है
कि भगवान्का भजन करे, भगवान्में लग जाय । तात्पर्य यह है कि सांसारिक चीजोंका होना कोई
बड़ी बात नहीं है । शास्त्रमें
मनुष्य-शरीरकी जो महिमा आयी है, वैसी धनकी महिमा नहीं आयी है, राज्यकी महिमा नहीं
आयी है । स्वर्गका जो राजा है, उस इन्द्रकी महिमा भी नहीं आयी है । ‘तीन टूक कौपीन के, अरु भाजी बिन नौन । तुलसी रघुबर उर बसे,
इन्द्र बापुरो कौन ॥’ भगवद्भजनके सामने इन्द्रकी भी कोई कीमत नहीं है ।
परन्तु धनको महत्त्व देकर डरते हैं कि यह कहीं खर्च न हो
जाय‒यह कोई मनुष्यपना है ? पर कहें किसको ! कोई सुननेवाला नहीं है । सुना था कि लोग ये बातें सुनकर नाराज हो जाते हैं और कहते
हैं कि यह धनकी निन्दा करता है । सज्जनो ! मैं धनकी
निन्दा नहीं करता हूँ; किन्तु लोभकी निन्दा करता हूँ, तुम्हारी ऐसी बुद्धिकी
निन्दा करता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि कहाँ मारी गयी ! लाखों-करोड़ों रुपये रखो, राज्य-वैभव
सब रखो, पर बुद्धि तो नहीं मारी जानी चाहिये ! कुछ तो होश होना चाहिये आदमीको !
कुछ तो अक्ल आनी चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं ! ऐसा मनुष्य-शरीर मिला है,
जो देवताओंको भी दुर्लभ है‒‘दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां
क्षणभंगुरः ।’ (भागवत ११/२/२९) । ‘बड़ें भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब
ग्रंथन्हि गावा ॥’ (मानस ७/४३/४) ऐसा मानव-शरीर मिला है, और कर क्या रहे हो ? इस मनुष्य-शरीरको पाकर तो भगवान् का भजन करना चाहिये‒‘अनित्यमसुखं
लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥’ (गीता ९/३३)
। भगवान्में लगना चाहिये, जिससे सदाके लिये कल्याण हो जाय । यह धन कितने दिन साथ देगा ? आप सोचो, अगर आज प्राण निकल
जायँ तो धनका क्या होगा ? धनके लिये किया हुआ पाप तो साथ
चलेगा, पर धन एक कौड़ी साथ नहीं चलेगा, पूरा-का-पूरा यहाँ रह जायगा ऐसे धनके लिये
अपना भाव बिगाड़ लिया, पाप कर लिया, अन्याय कर लिया, झूठ-कपट कर लिया, भाई-बन्धुओंसे लड़ाई कर ली । इस प्रकार धनके लिये कितने-कितने
अन्याय और अनर्थ कर लिये, उस धनसे पतनके सिवाय और क्या होगा ? नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे |