आपका पक्का विचार हो जाय तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन
नहीं है, संसारका हृदयसे त्याग करना कठिन है । यह जो
सुखासक्ति है‒संयोगजन्य सुख है, आरामका सुख है, मानका सुख है, संग्रहका सुख है,
मेरी बात रह जाय‒यह अभिमानका सुख है, यही खास बाधा है । इसीका त्याग कठिन मालूम
देता है । इसका त्याग करनेके बाद परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति सीधी ही है; क्योंकि
परमात्मतत्त्व सबको प्राप्त है और उसमें बड़ा भारी आनन्द है । इस संयोगजन्य सुखका
त्याग सुगमतासे कैसे हो ? सुगमतासे इसका त्याग तब होता
है, जब भीतरका भाव बदल जाय कि दूसरेको सुख कैसे
हो ? दूसरेका सम्मान कैसे हो ? दूसरेकी प्रशंसा कैसे हो ? दूसरेका हित कैसे हो ? श्रोता‒भीतरका भाव
कैसे बदले महाराजजी ? स्वामीजी‒यह तो खुदके बदलनेसे बदलेगा भाई ! भाव बदलना अपने हाथकी बात है । भाव ऐसे बदलो कि हमें सुख नहीं लेना है । भोजन करो, पर भोजनका सुख मत लो; कपड़ा पहनो, पर कपड़ेका सुख मत लो । नींद लो, पर नींदका सुख मत लो । कपड़ा ओढ़ो, पर ओढ़नेका सुख मत लो । संसारको देखो, पर देखनेका सुख मत लो । बात अच्छी-अच्छी सुनो, पर सुननेका सुख मत लो । अच्छा विचार करो, पर अच्छे विचारका सुख मत लो । श्रोता‒इनसे हमें सुख मालूम देता है ! स्वामीजी‒मालूम
देता है, तभी तो भोगना नहीं है । सुख मालूम देना दोषी नहीं है, उससे राजी
होना दोषी है । कोई आदमी अगर अनुकूल हो जाय तो हम राजी हो जाते हैं कि यह आदमी बड़ा अच्छा है ।
अतः राजी होना और उस आदमीको अच्छा मानना‒ये दो दोष आते हैं । कोई आदमी हमारा
तिरस्कार करता है तो हमें दुःख होता है और हम उस आदमीको खराब मान लेते हैं । अतः
दुःखी होना और उस आदमीको खराब मानना‒ये दो दोष
आते हैं । सुख लेना और दुःखी होना‒ये दोनों मुख्य बाधाएँ हैं । जो सुख देता
है, उस आदमीको अच्छा मानते हैं तो अच्छा मानना दोष नहीं
है, पर सुखके कारण अच्छा मानते हैं‒यह दोष है । सुख लेना इतना दोषी नहीं है, जितना सुखसे राजी होना दोषी है
। सुख-दुःखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, सुखी-दुःखी होना दोषी है । भगवान्ने क्या सुन्दर कहा है‒‘दुखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः’ (गीता २/५६) । दुःखका ज्ञान हो, पर मनमें उद्वेग न हो और सुखका ज्ञान हो, पर भीतरमें स्पृहा न हो तो बुद्धि स्थिर हो जायगी । देखो, यह ऐसी गहरी बात है कि जल्दी पता नहीं लगता है । हमें तो बहुत वर्षोंतक पता नहीं लगा, आपलोगोंकी आप जाने । हमारी ऐसी खोज रहती थी कि बाधा क्या है और क्यों है ? सुनते हैं, समझते हैं, पढ़ते हैं, विचार करते हैं, फिर भी जैसी स्थिति होनी चाहिये, वैसी नहीं हो रही है, तो बाधा क्या है ? यह बाधा यहाँ लगती है कि अनुकूलतामें हम राजी होते हैं और प्रतिकूलतामें हम नाराज होते हैं । राजी-नाराज होना, सुखी-दुःखी होना भोग है । जितने भी सम्बन्धजन्य भोग हैं, वे सब-के-सब दुःखोंके कारण है‒‘ये हि संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । सुखके भोगीको भयंकर दुःख पाना पड़ेगा । कोई टाल नहीं सकता उसको । सुख अपनी मरजीसे भोगेंगे और दुःख परवश होकर, पराधीन होकर भोगेंगे । |
