श्रोता‒सुखकी आसक्ति
कैसे छूटे ? स्वामीजी‒मैंने पहले ही यह बात बतायी कि हम अपना भाव बदल दें कि
दूसरेको सुख कैसे हो ? उसका हित कैसे हो ? उसका कल्याण कैसे हो ? उसकी सद्गति
कैसे हो ? उसका सुधार कैसे हो ? उसकी उन्नति कैसे हो ? श्रोता‒भाव कैसे
बदलेगा महाराजजी ! गुरु-कृपासे या सत्संगसे ? स्वामीजी‒यह स्वयंसे बदलेगा । दूसरी बात हमने सोच
रखी है, वह है‒सत्संग । सत्संगमें आपसमें ऐसे विचार होते रहें तो इससे बड़ा भारी
लाभ होता है । जैसे, एक कमा करके धनी बनता है और एक धनीकी गोद चला जाता है । गोद
जानेवालेको क्या जोर आता है ? आज कँगला, कल लखपति ! कमाया हुआ धन मिलता है । ऐसे
ही सत्संगके द्वारा कमाया हुआ धन मिलता है । जिन लोगोंने साधन किया है और अपने
साधनसे ऊँचे बढ़े हैं, उनको इसमें कितने वर्ष लगे हैं ! परन्तु वे अपनी बात हमें
बता दें तो हमारेको कमाया हुआ धन मिल गया न ? श्रोता‒महाराजजी ! सत्संग हमेशा मिलता नहीं है । स्वामीजी‒तो जब मिलता हो, तब पकड़ो । सत्संगके विषयमें हमने एक बहुत
मार्मिक बात पढ़ी है कि सत्संग एक बार ही होता है, दो बार होता ही नहीं । दो बार
सुनना होता है, चर्चा होती है, चिन्तन होता है, क्रिया होती है । सत्-क्रिया,
सत्-चिन्तन, सत्-श्रवण, सत्-कथन ! ये बार-बार होते हैं, पर सत्का संग एक बार ही होता है । एक बार हो जायगा तो वह सदाके
लिये हो जायगा और उस एक बारके लिये ही बार-बार करना है । अपने सत्-स्वरूपका एक बार बोध हो गया तो हो ही गया । आँख खुल
गयी तो फिर खुल ही गयी । क्या नींदसे जगनेके लिये अभ्यास करना पड़ता है ? अभ्याससे
भी कल्याण होता है, पर देरीसे होता है । परन्तु ज्ञान
(बोध) होनेसे, मान लेनेसे अथवा त्याग करनेसे तत्काल कल्याण होता है ।
बोधका, मान्यताका और त्यागका कभी टुकड़ा नहीं होता । ये एक ही साथ होते हैं पड़ाकसे
! जैसे विवाह होनेपर स्त्रीको अपनी माननेके लिये आपको अभ्यास नहीं करना पड़ता, उद्योग नहीं करना पड़ता । केवल दृढ़तासे मान लेते हो कि मेरी स्त्री है । ऐसे ही गुरु बनाते हो तो उसमें भी मान्यता होती है । इसी तरह ‘भगवान् हमारे हैं’ ऐसी दृढ़ मान्यता हो जाय । जैसे स्त्रीको जँच जाता है कि मेरा पति है और पतिको जँच जाता है कि मेरी स्त्री है, इससे भी बढ़कर जँचना चाहिये कि भगवान् मेरे हैं । पति-पत्नीका भाव तो अपना बनाया हुआ है, पर हम परमात्माके हैं‒यह अपना बनाया हुआ नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध है । केवल इस तरफ ध्यान देना है कि ओहो ! हम तो परमात्माके हैं ! जैसे अर्जुनने कहा‒‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८/७३), मोह नष्ट हो गया और याद आ गयी ! याद आ गयी‒यह नया ज्ञान नहीं है, नया सम्बन्ध नहीं है । भगवान्के सम्बन्धकी याद आ गयी तो यह पति-पत्नीके सम्बन्धकी अपेक्षा दृढ़ है; क्योंकि पति-पत्नीका सम्बन्ध तो मान्यता होकर आरम्भ हुआ है, पहले सम्बन्ध था नहीं । जिस समय विवाह होता है, उस समय वह सम्बन्ध आरम्भ होता है । परन्तु भगवान्के साथ हमारा सम्बन्ध आरम्भ नहीं होता । यह तो सदासे ही है । केवल इस सम्बन्धको मान लेना है, बस । इसमें देरीका काम नहीं है । जिस दिन इसको मान लिया, उस दिन सत्संग हो गया, सत्का संग हो गया ! |
