भगवान्के साथ हमारा सम्बन्ध आरम्भ नहीं
होता । यह तो सदासे ही है । केवल इस सम्बन्धको मान लेना है, बस । इसमें देरीका काम
नहीं है । जिस दिन इसको मान लिया, उस दिन सत्संग हो गया, सत्का संग हो गया ! इसमें बाधा यह है कि हम जिन पदार्थोंको
नाशवान् मानते हैं, उनको अपना मान लेते हैं । यह गलती है । इस गलतीको मिटानेमें
जोर पड़ता है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति तो सुगम है, पर संसारका त्याग करनेमें जोर
पड़ता है । जिनको हम नाशवान् जानते हैं, उनका ही संग्रह
करते हैं । उनसे ही सुख लेते हैं‒यह जो हमारी चाल है न, यह चाल खतरनाक है । यह चाल
बदलनी चाहिये । चालमें भी केवल भीतरका भाव बदलना है कि औरोंको सुख कैसे हो ? यह
भले ही घरसे शुरू कर दो कि माता, पिता, स्त्री, पुत्र, परिवारको सुख कैसे हो ? पर
साथ-साथ उनसे सुख लेनेकी आशा छोड़ दो । जिससे सुख मिलनेकी
आशा नहीं है, उसको सुख नहीं पहुँचाते और जिसको सुख पहुँचाते हैं उससे सुख लेनेकी
आशा रहती है‒यह है खास बन्धन । इसलिये सुखकी आशा न रखकर दूसरोंको सुख देना
है, दूसरोंको आराम देना है, दूसरोंकी बात रखनी है । अपनी बात रखोगे तो बड़ी भारी
आफत हो जायगी । मेरी
बात रहे‒इसीमें बन्धन है । हम जो नाशवान् पदार्थोंसे राजी
होते हैं; जानते हैं कि ये रहेंगे नहीं, टिकेंगे नहीं, फिर भी उसमें रस लेते हैं,
यहींसे बन्धन होता है । श्रोता‒महाराजजी ! हमारी तो आदत ही ऐसी पड़ गयी सुख लेनेकी ! स्वामीजी‒भैया ! आदत छोड़नेके लिये ही तो हम यहाँ
इकट्ठे हुए हैं । यहाँ कौन-से पैसे मिलते हैं ! आदत
सुधारनेके समान कोई उन्नति है ही नहीं ।
अपने स्वभावको शुद्ध बना लेनेके समान आपका कोई पुरुषार्थ नहीं है । इसके समान कोई
लाभ नहीं है । आपका पुरुषार्थ, उद्योग, प्रयत्न इसीमें होना चाहिये कि स्वभाव
सुधरे । स्वभाव ही सुधरता है और क्या सुधरता है बताओ ? जो सन्त-महात्मा
होते हैं, उनका भी स्वभाव ही सुधरता है । शरीरमें फरक नहीं पड़ता, स्वभावमें फरक
पड़ता है । इसलिये अपनी आदत है, अपना स्वभाव है, अपनी प्रकृति है, इसको हमें शुद्ध
करना है । इसमें जो-जो अशुद्धि आये, उसको निकालना है । यह एक ही खास काम करना है ।
यह याद कर लो कि अपना स्वभाव
सुधारनेमें हम स्वतन्त्र हैं, पराधीन नहीं हैं । इसको दूसरा कोई कर देगा‒यह बात
नहीं है । यह तो आप ही करोगे, तब होगा । जब कभी करोगे तो आपको ही करना पड़ेगा । आपने प्रश्न किया था
कि यह गुरु-कृपासे होगा या सन्त-कृपासे होगा, तो इस विषयमें आपको एक मार्मिक बात
बताता हूँ । अगर गुरु-कृपासे होगा तो गुरुको आप मानोगे, तब होगा । अगर सन्त-कृपासे
होगा तो सन्तको आप मानोगे, तब होगा । अन्तमें बात आपके
ऊपर ही आयेगी । आप मानोगे तब होगा । ईश्वरकी कृपा तो सदासे है, पर आप मानोगे, तब
वह काम करेगी । इसलिये गीतामें कहा गया है कि अपने-आपसे अपना उद्धार करे‒‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (६/५) । आपके माने बिना गुरु
क्या करेगा ? हम गुरु मानेंगे, सन्त-महात्मा मानेंगे, तभी वे कृपा करेंगे । |
