।। श्रीहरिः ।।

                                                                                    


आजकी शुभ तिथि–
     पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७८, सोमवार
       परमात्मप्राप्तिमें मुख्य बाधा‒
               सुखासक्ति


 

भगवान्‌के रहते हुए हम दुःख क्यों पा रहे हैं ? भगवान्‌में तीन बातें हैं‒वे सर्वज्ञ हैं, दयालु हैं और सर्वसमर्थ हैं । ये तीन बातें याद कर लें और इसका मनन करें । सर्वज्ञ होनेसे वे हमारे दुःखको जानते हैं । दयालु होनेसे वे हमारा दुःख नहीं देख सकते, दुःख देख करके पिघल जाते हैं । सर्वसमर्थ होनेसे वे हमारे दुःखको मिटा सकते हैं । इन तीनों बातोंमेंसे एक भी बात कम हो तो मुश्किल होती है, जैसे‒दयालु हैं, पर हमारे दुःखको जानते नहीं और दयालु हैं तथा हमारे दुःखको भी जानते हैं, पर दुःख दूर करनेकी सामर्थ्य नहीं ! परन्तु तीनों बातोंके मौजूद रहते हुए हम दुःखी होते हैं, यह बड़े आश्चर्यकी बात है !

एक कायस्थ सज्जन थे । उन्होंने मेरेसे कहा कि क्या करे, मेरी लड़की बड़ी हो गयी, पर सम्बन्ध हुआ नहीं । मैंने कहा कि अभी एक तुम चिन्ता करते हो, ज्यादा करोगे तो हम दोनों चिन्ता करने लग जायँगे, दोनों रोने लग जायँगे, इससे ज्यादा क्या करेंगे ? ज्यादा दया आ जायगी तो हम भी रोने लग जायँगे और हम क्या कर सकते हैं ? हमारे पास पैसा नहीं, हमारे पास सामर्थ्य नहीं ! ऐसे ही भगवान्‌को दया आ जाय और सामर्थ्य न हो तो वे रोने लग जायँगे और क्या करेंगे ? परन्तु वे सर्वसमर्थ हैं, सर्वज्ञ हैं और दयालु हैं, दयासे द्रवित हो जाते हैं । इन तीन बातोंके रहते हुए हम दुःखी क्यों हैं ? इसमें कारण यह है कि हम इनको मानते ही नहीं, फिर भगवान्‌ क्या करें, बताओ ?

श्रोता‒अपनी ही कमी है महाराजजी !

स्वामीजी‒अपनी कमी तो अपनेको ही दूर करनी पड़ेगी, चाहे आज कर लो, चाहे दिनोंके बाद कर लो, चाहे महीनोंके बाद कर लो, चाहे वर्षोंके बाद कर लो, चाहे जन्मोंके बाद कर लो, यह आपकी मरजी है ! जब आप दूर करना चाहो, कर लो । चाहे अभी दूर कर लो, चाहे अनन्त जन्मोंके बाद ।

संसारको तो अपना मान लिया और भगवान्‌को अपना नहीं माना‒यह बाधा हुई है मूलमें । अतः भगवान्‌को अपना मान लो‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ । आप भगवान्‌को तो अपना मान लेते हो, पर ‘दूसरों न कोई’ इसको नहीं मानते । इसको माने बिना अनन्यता नहीं होती । अनन्य चित्तवाले मनुष्यके लिये भगवान्‌ सुलभ हैं‒‘अनन्यचेताः सततं......तस्याहं सुलभः पार्थ’ (गीता ८/१४)शर्त यही है कि अन्य किसीको अपना न माने ।

एक  बानि   करुनानिधान  की ।

सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥

(मानस ३/१०/४)

भगवान्‌के सिवाय दूसरा कोई सहारा न हो, प्यारा न हो, गति न हो, तो वह भगवान्‌को प्यारा लगता है । अतः अनन्य भावसे भगवान्‌को अपना मान लो । यह हमारे हाथकी बात है, हमारेपर निर्भर है । बातें सुनना, शास्त्र पढ़ना आदि इसमें सहायक है, पर करना अपनेको ही पड़ता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तकसे