मूल बाधा‒संयोगजन्य सुखकी आसक्ति । संयोगजन्य सुखकी जो भीतरमें एक लालसा है, इच्छा है, वासना है,
लोभ है, यह खास बीमारी है । संयोगजन्य सुख तो ठहरता नहीं है, अगर उसकी
लालसा त्याग दें तो बड़ा सीधा काम है । विषयोंकी इच्छा है, भोगोंकी इच्छा है,
संग्रहकी इच्छा है, मानकी इच्छा है, बड़ाईकी इच्छा है, आरामकी इच्छा है‒यह हमारे सामने उत्पन्न होती है और नष्ट होती है । यह इच्छा
कभी पूरी हो जाती है, कभी अधूरी रह जाती है; कभी आंशिक पूरी होती है, कभी नष्ट हो
जाती है । परन्तु हम ज्यों-के-त्यों रहते हैं, हमारे स्वरूपमें कोई फरक नहीं पड़ता ।
अगर अपने स्वरूपमें स्थित हो जायँ तो इच्छाएँ मिट जायँगी और अगर इच्छाओंको मिटा
दें तो अपने स्वरूपमें स्थिति हो जायगी । दोनोंमेंसे जो चाहो, सो कर लो । सत्की
जिज्ञासासे भी, असत्की निवृत्तिसे भी सत्की प्राप्ति होती है । जिस सुखकी उत्पत्ति होती है और
नाश होता है, ऐसे सुखकी लालसा मिटानी है‒इतना काम करना है । संयोगजन्य सुख जो खुद
तो हरदम रहता नहीं और नित्य-निरन्तर रहनेवाले परमात्मतत्त्वके सुखसे वंचित कर देता
है, कितने अनर्थकी बात है ! ऐसे संयोगजन्य सुखका भी त्याग नहीं कर सकते तो हम क्या
त्याग कर सकते हैं !
सुखकी कामना उत्पन्न और नष्ट होती है, पर
आप उत्पन्न और नष्ट नहीं होते हो । कामना आपमें होती है, आप कामनामें नहीं होते हो । आप
व्यापक हो, कामना व्याप्य है अर्थात् आप सब देशमें हो, कामना एक देशमें है; आप सब
कालमें हो, कामना एक कालमें है; और कामना हो या न हो, आपमें कोई फरक नहीं पड़ता, आप
ज्यों-के-त्यों रहते हैं । कामनाको केवल आपने ही पकड़ रखा है, कामनामें आपको पकड़नेकी कोई ताकत नहीं है
। सत्संगके समय कामना नहीं रहती, इसलिये अनुभव होता है कि तत्त्व
ज्यों-का-त्यों है । कामना होनेपर यह अनुभूति वैसी नहीं रहती । इसलिये प्रश्न होता
है कि सत्संग सुनते समय जैसा भाव रहता है, वैसा और समयमें नहीं रहता । वास्तवमें
तो वह तत्त्व नित्य-निरन्तर वैसे-का-वैसा ही रहता है । सत्संग सुनो चाहे मत सुनो,
चाहे कुसंग करो, सत्-तत्त्व तो ज्यों-का-त्यों ही रहता है, उसका कभी नाश नहीं
होता । परन्तु आपकी दृष्टि असत्की तरफ चली जाती है तो वह असत् आपपर हावी हो जाता
है और ऐसा दीखने लगता है कि मानो सत् नहीं रहा; जो कभी हो और कभी न हो, वह सत् कैसे
हो सकता है ? सत् तो हरदम ज्यों-का-त्यों रहता है । असत्की
लालसामें सत्को ढकनेकी शक्ति नहीं है; क्योंकि सत् व्यापक है और असत् व्याप्य
है । तुच्छ चीज महान्को ढक दे, आवृत कर दे‒ऐसा नहीं है । ‘आवृतं ज्ञानमेतेन.....’(गीता ३/३९), ‘इस कामनासे वह ज्ञान आवृत है’‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि ज्ञान आवृत नहीं होता, आपकी दृष्टि
आवृत होती है । जैसे, बादल आनेपर सूर्य नहीं दीखता तो हम कहते हैं कि सूर्य
ढक गया । परन्तु वास्तवमें सूर्य नहीं ढकता, हमारी आँख ढक जाती है । सूर्य तो
भूमण्डलसे भी बड़ा है, वह थोड़ेसे बादलके टुकड़ेसे कैसे ढक सकता है ? ऐसे ही कामना
आती है तो हम मान लेते हैं कि हम कामनाके वशीभूत हो गये, कामनाने हमें हरा दिया ।
वास्तवमें यह बात नहीं है । आपको कामना कैसे ढक सकती है ? कामना तुच्छ है और आप
महान् हैं‒‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’ (गीता
२/२४) । |