अपनेमें दोषोंकी स्थापना हमने ही की है । हमने
ही उनको सत्ता देकर दृढ़ किया है । अतः दोषोंको सत्ता न देकर अपनेमें और दूसरोंमें
निर्दोषताकी स्थापना करना अर्थात् निर्दोषताका अनुभव करना हमारा कर्तव्य है । अपनेमें और दूसरोंमें निर्दोषताका अनुभव करना ही
तत्त्वज्ञान है, जीवन्मुक्ति है । (११) हमारी सत्ता किसी वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके अधीन नहीं है ।
प्रत्येक वस्तुकी उत्पत्ति और विनाश होता है, प्रत्येक व्यक्तिका जन्म (संयोग) और मरण (वियोग) होता है एवं प्रत्येक
क्रियाका आरम्भ और अन्त होता है । परन्तु इन तीनोंको जाननेवाली हमारी चिन्मय
सत्ताका कभी उत्पत्ति-विनाश, जन्म-मरण (संयोग-वियोग) और आरम्भ-अन्त नहीं होता । वह
सत्ता नित्य-निरन्तर स्वतः ज्यों-की-त्यों रहती है । उस सत्ताका कभी अभाव नहीं
होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ । उस सत्तामें
स्वतः-स्वाभाविक स्थितिके अनुभवका नाम ही जीवन्मुक्ति है । मनुष्यको यह वहम रहता है कि अमुक वस्तुकी
प्राप्ति होनेपर, अमुक व्यक्तिके मिलनेपर तथा अमुक क्रियाको करनेपर मैं स्वाधीन
(मुक्त) हो जाऊँगा । परन्तु ऐसी कोई वस्तु, व्यक्ति और क्रिया है ही नहीं, जिससे
मनुष्य स्वाधीन हो जाय । वस्तु, व्यक्ति और क्रिया तो मनुष्यको पराधीन बनानेवाली
हैं । उनसे असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है । अतः साधकको चाहिये कि वह वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके
बिना अपनेको अकेला अनुभव करनेका स्वभाव बनाये, उस अनुभवको महत्त्व दे, उसमें
अधिक-से-अधिक स्थित रहे । यह मनुष्यमात्रका अनुभव है कि सुषुप्तिके समय वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके
बिना भी हम स्वतः रहते हैं; परन्तु हमारे बिना वस्तु, व्यक्ति और क्रिया नहीं रहती
। जब जाग्रत्में भी हम इनके बिना रहनेका स्वभाव बना लेंगे, तब हम स्वाधीन अर्थात्
मुक्त हो जायँगे । वस्तु,
व्यक्ति और क्रियाके सम्बन्धकी मान्यता ही हमें स्वाधीन नहीं होने देती और हमारे न
चाहते हुए भी हमें पराधीन बना देती है ।
हमें विचार करना चाहिये कि ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सदा
हमारे पास रहेगी और हम सदा उसके पास रहेंगे ? ऐसा कौन-सा व्यक्ति है, जो सदा हमारे
साथ रहेगा और हम सदा उसके साथ रहेंगे ? ऐसी कौन-सी क्रिया है, जिसको हम सदा करते
रहेंगे और जो सदा हमसे होती रहेगी ? सदाके लिये हमारे
साथ न कोई वस्तु रहेगी, न कोई व्यक्ति रहेगा और न कोई क्रिया रहेगी । एक दिन हमें
वस्तु, व्यक्ति और क्रियासे रहित होना ही पड़ेगा । अगर हम वर्तमानमें ही उनके
वियोगको स्वीकार कर लें, उनसे असंग हो जायँ तो जीवन्मुक्ति स्वतःसिद्ध है । |