विचार करें, वस्तु पासमें रहते हुए भी हम रहते हैं और वस्तु
पासमें न रहते हुए भी हम वही रहते हैं । व्यक्ति साथमें रहते हुए भी हम रहते हैं
और व्यक्ति साथमें न रहते हुए भी हम वही रहते हैं । क्रिया करते समय भी हम रहते
हैं और क्रिया न करते समय भी हम वही रहते हैं । इन दोनों अवस्थाओंका अनुभव सबको है
। इससे सिद्ध होता है कि हमारा अस्तित्व (होनापन) वस्तु,
व्यक्ति और क्रियाके अधीन नहीं है । हमें वस्तु, व्यक्ति और क्रियाकी अपेक्षा,
आवश्यकता भी नहीं है, प्रत्युत उनको ही हमारी आवश्यकता है । अतः हम स्वतन्त्र हैं ।
हम वस्तुकी उत्पत्तिको भी देखते हैं और विनाशको भी देखते हैं, व्यक्तिके संयोगको
भी देखते हैं और वियोगको भी देखते हैं, क्रियाके आरम्भको भी देखते हैं और अन्तको
भी देखते हैं । वस्तु, व्यक्ति और क्रिया‒तीनोंके अभावका तो हमें अनुभव होता है,
पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । अपने इस
अनुभवमें नित्य-निरन्तर स्थित रहना साधकका काम है । यह अभ्यास नहीं है, प्रत्युत
जागृति है । वस्तु, व्यक्ति और क्रियाका संयोग अनित्य है, पर वियोग नित्य
है । नित्यको स्वीकार करनेसे नित्य-तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । तात्पर्य है कि
वस्तु, व्यक्ति और क्रियासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर सर्वत्र परिपूर्ण उस
परमात्मसत्तामें स्वतः स्थिति हो जाती है, जिसके लिये गीताने कहा है‒ मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिंना । (गीता
९/४) ‘यह सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूपसे व्याप्त
है ।’ (१२) असत्की सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान
नहीं है‒इसका तात्पर्य है कि जो भी सत्ता दीखती है, वह असत्की न होकर सत्-तत्त्वकी
ही है । इस सत्ताको अस्वीकार कोई कर ही नहीं सकता । कोई परमात्माकी सत्ता मानता
है, कोई आत्माकी सत्ता मानता है और कोई जगत्की सत्ता मानता है । अगर कोई कहे कि मैं किसीकी भी सत्ता नहीं मानता तो वह अपनी
सत्ता तो मानता ही है ! तात्पर्य यह है कि किसी-न-किसी रूपमें सत्-तत्त्व
(‘है’)-की सत्ताको सभी स्वीकार करते हैं, भले ही वे उसका नाम कुछ भी रख दें । सत्ताका निषेध करनेसे अपना निषेध हो जायगा, जबकि अपने अभावका
अनुभव कभी किसीको नहीं होता । (१३) जिसका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् जो प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति,
क्रिया, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें विद्यमान है, उस तत्त्वकी
प्राप्ति कुछ करनेसे नहीं होती । कारण कि जो विद्यमान है, उसकी अप्राप्ति
होती ही नहीं । हम
कुछ करेंगे, तब प्राप्ति होगी‒यह भाव देहाभिमानको पुष्ट करनेवाला है ।
प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और समाप्ति होती है; अतः क्रिया करनेसे उसीकी प्राप्ति
होगी, जो विद्यमान नहीं है । परन्तु प्रकृतिके साथ सम्बन्ध होनेके कारण प्रत्येक
प्राणीमें क्रियाका वेग रहता है, जो उसको क्रियारहित नहीं होने देता[*] । क्रियाका वेग शान्त करनेके
लिये यह आवश्यक है कि जो नहीं करना चाहिये, उसको न करें और जो करना चाहिये, उसको
निर्मम तथा निष्काम होकर करें अर्थात् अपने लिये कुछ न करें, प्रत्युत केवल
दूसरेके हितके लिये ही करें[†] । अपने लिये करनेसे क्रियाका वेग कभी समाप्त
नहीं होगा; क्योंकि अपना स्वरूप नित्य है और कर्म अनित्य हैं । अतः दूसरोंके हितके
लिये कर्म करनेसे क्रियाका वेग शान्त होकर प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और
सब देश, काल आदिमें विद्यमान सत्-तत्त्व प्रकट हो जायगा, उसका अनुभव हो जायगा ।
[*] न
हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते
ह्यवशः कर्म सर्वः
प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ (गीता
३/५) ‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र
भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि (प्रकृतिके) परवश हुए सब प्राणियोंसे
प्रकृतिजन्य गुण कर्म कराते हैं ।’
[†] न
कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते
। न च
सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ (गीता
३/४) ‘मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको
प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागमात्रसे सिद्धिको ही प्राप्त होता है ।’ आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । (गीता
६/३) ‘जो योग (समता)-में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म
करना कारण है ।’ |