(१४) साधक भूत और भविष्यकी जिन वस्तुओं, व्यक्तियों और
क्रियाओंको महत्त्व देता है, उनका चिन्तन बिना किये और बिना चाहे स्वतः होता रहता
है । उस स्वतः होनेवाले चिन्तनको मिटानेके लिये साधक परमात्माका चिन्तन करता है ।
परन्तु यह
सिद्धान्त है कि होनेवाले चिन्तनको किये गये चिन्तनसे नहीं मिटाया जा सकता ।
चिन्तन करनेसे करनेके नये संस्कार पड़ते हैं, जिससे वह नष्ट नहीं होता, प्रत्युत और
पुष्ट होता है । स्वतः होनेवाला चिन्तन स्वतः होनेवाले चिन्तनसे अथवा चुप होनेसे
ही मिट सकता है । तात्पर्य है कि सत्-तत्त्वका अनुभव होनेपर, निष्काम होनेपर, बोध
होनेपर, प्रेम होनेपर संसारका स्वतः होनेवाला चिन्तन मिट जाता है । चुप होनेका तात्पर्य है कि साधक स्वतः होनेवाले चिन्तनकी
उपेक्षा कर दे, उससे उदासीन हो जाय अर्थात् उसको न ठीक समझे, न बेठीक समझे और न
अपनेमें समझे तथा अपनी तरफसे कोई नया चिन्तन भी न करे । वह न चिन्तन करनेसे मतलब
रखे, न चिन्तन नहीं करनेसे मतलब रखे । वह न तो किये जानेवालेका कर्ता बने और न
होनेवालेका भोक्ता बने । ऐसा करनेसे साधक धीरे-धीरे अचिन्त्य हो जायगा । परन्तु
अचिन्त्य होनेका, सुख लेनेका भी आग्रह नहीं रखना है । ऐसा होनेपर साधक चिन्तन करने
और चिन्तन होने‒दोनोंसे रहित हो जायगा‒‘नैव तस्य
कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८); क्योंकि करनेमें
कर्मेन्द्रियोंका और होनेमें अन्तःकरणका सम्बन्ध होनेसे करना और होना‒दोनों ही
अनित्य हैं । करने और होनेसे रहित होनेपर ‘है’ (सत्-तत्त्व)-में अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जायगा
। (१५) असत्का भाव विद्यमान नहीं है अर्थात्
असत्का भाव निरन्तर अभावमें बदल रहा है । परन्तु ‘असत्का
भाव विद्यमान नहीं है’‒इस बातका ज्ञान अभावमें नहीं बदलता । इस ज्ञानमें
हमारी स्थिति स्वतःसिद्ध है । देह तो निरन्तर अभावमें बदल रहा है; अतः देह नहीं
है, प्रत्युत देही (स्वरूप) ही है । देहीकी सत्ता देश, काल, वस्तु, व्यक्ति,
अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिसे सर्वथा अतीत है । असत्का भाव निरन्तर अभावमें जा रहा है; अतः असत् नहीं है,
प्रत्युत सत् ही है । असत्की केवल मान्यता है । असत्की
यह मान्यता ही सत्की स्वीकृति नहीं होने देती । गलत मान्यता सही मान्यता करनेसे
मिट जाती है । वास्तवमें न सही मान्यता है, न गलत मान्यता है, केवल
सत्तामात्र है । जैसे हाथ, पैर, नासिका आदि शरीरके अंग हैं, ऐसे असत् सत्का
अंग भी नहीं है । जो बहनेवाला और विकारी होता है, वह अंग नहीं होता[*]; जैसे‒कफ, मूत्र आदि बहनेवाले और फोड़ा आदि विकारी होनेसे
शरीरके अंग नहीं होते । ऐसे ही असत् बहनेवाला और विकारी होनेके कारण सत्का अंग
नहीं है ।
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