श्रोता‒संसारका
सम्बन्ध नहीं है‒यह बात बुद्धितक तो समझमें आ गयी, पर
आगे साफ नहीं है ! स्वामीजी‒कोई बात नहीं ! बुद्धितक समझमें आ गयी तो भी अच्छा है । आप यह मान लो कि वास्तवमें
बात ऐसी ही है । आपका बालकपन अभी है क्या ? नहीं है तो बालकपनका वियोग हो गया न ?
बालकपनका वियोग हो गया तो अभी जो अवस्था है,
उसका वियोग नहीं होगा क्या ? आगे जो अवस्था आयेगी,
उसका वियोग नहीं होगा क्या ? कोई भी अवस्था आये, कैसी
ही परिस्थिति आये, उसका वियोग होगा ही‒इसमें कोई सन्देह नहीं है । परन्तु
सबका वियोग होनेपर भी परमात्माका वियोग नहीं होगा;
क्योंकि परमात्मा सबमें परिपूर्ण है और सबसे अतीत
है । जैसे,
यह आकाश कहाँ नहीं है ? जहाँ हम सब बैठे हैं,
वहाँ भी आकाश है और जहाँ हम सब नहीं हैं,
वहाँ भी आकाश है । ऐसे ही जहाँ हमलोग हैं,
वहाँ भी परमात्मा हैं और जहाँ हमलोग नहीं हैं,
वहाँ भी परमात्मा हैं । परमात्मा सबके
भीतर, बाहर, ऊपर, नीचे, सर्वत्र परिपूर्ण हैं और सबसे अतीत भी हैं । ये सब शरीर पहले नहीं थे, आगे नहीं रहेंगे और अब भी निरन्तर नहींमें ही जा रहे हैं । जैसे
बालकपन नहीं रहा, ऐसे यह भी नहीं रहेगा, पर परमात्मा रहेंगे । बालकपन नहीं रहा तो क्या आप भी नहीं रहे
? अतः परमात्मा है और संसार नहीं है । परमात्मा है‒इसको
मानो तो योग हो गया और संसार नहीं है‒इसको मानो तो योग हो गया । समताका नाम योग है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) और दुःखरूप संसारके वियोगका नाम भी योग है‒‘तं विद्याद्ःदुखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता
६ । २३) । संसारका वियोग
होनेपर समता ही रहेगी; क्योंकि संसार विषम है और परमात्मा सम है‒‘समं
सर्वेषु भूतेषु’ (गीता १३ । २७) । व्यक्ति अलग-अलग हैं, पर आकाश अलग-अलग नहीं है, प्रत्युत एक है । ऐसे ही वह परमात्मा
एक है । वह सबमें है और सबसे अतीत भी है । संयोगमें भी वही है और वियोगमें भी वही है
। पहले भी वही था, पीछे भी वही रहेगा और अब भी वही है ।
संसार नहीं है और परमात्मा है‒ये दो बातें आप मान
लें । यह जो संसार दीखता है,
यह पहले नहीं था, आगे नहीं रहेगा और अब भी नहींमें जा रहा है । वह परमात्मा पहले
भी था,
आगे भी रहेगा और अब भी है । संसार नहीं है‒ऐसा कहो अथवा परमात्मा
है‒ऐसा कहो, एक ही बात है । इसमें क्या बाधा लगती है ? |