श्रोता‒जो
नहीं है, उसके लिये पाप कर
देते हैं तो खाली कहना-सुनना हुआ ! स्वामीजी‒जो है, उसको मुख्य मानो । कसौटी लगाकर उसको शिथिल मत करो,
प्रत्युत कसौटीको शिथिल करो । भूलको
महत्त्व न देकर सही बातको महत्त्व दो । पाप निरन्तर नहीं रहता । जो निरन्तर
नहीं रहता, उसपर जोर मत दो, प्रत्युत जो निरन्तर रहता है, उसीपर जोर दो । आप स्वयं अनुभव
करो कि निरन्तर कौन रहता है ? पाप निरन्तर रहता है या अपना होनापन (स्वरूप) निरन्तर रहता है
?
जो निरन्तर रहता है, उसीपर
दृढ़ रहो तो सब ठीक हो जायगा । पाप हो जाता है, अन्याय हो जाता है, झूठ-कपट हो जाता है तो क्या ‘है’ का अभाव हो जाता है ?
आप ‘है’ की तरफ देखो । ‘है’ में कोई फर्क पड़ता है क्या ? जब
आप ‘नहीं’ को
‘है’ मान
लेते हो, तब
बाधा लगती है । ‘नहीं’
को ‘नहीं’
मानो और ‘है’ को ‘है’ मानो । कोई पाप हो गया तो भूल हो गयी बीचमें ! भूलके आधारपर ‘है’ का निषेध क्यों करते हो ? श्रोता‒‘है’ को
मान लिया, पर प्रत्यक्ष अनुभव
हुए बिना यह मान्यता टिकती नहीं है ! स्वामीजी‒देखो भाई ! यह आँखसे नहीं दीखेगा । देखना दो तरहका होता है‒एक आँखसे होता है और
एक भीतरमें माननेसे होता है । भीतरसे अनुभव हो जाय, बुद्धिसे बात जँच जाय‒इसको देखना कहते हैं । यह ‘है’ आँखसे कभी दीखेगा ही नहीं । यह तो माननेमें ही आता है । आपका
नाम,
जाति, गाँव, मोहल्ला, घर क्या अभी देखनेमें आ रहे हैं ?
देखनेमें नहीं आ रहे हैं तो क्या ये नहीं हैं ? जो देखनेमें
नहीं आता,
वह होता ही नहीं‒ऐसी बात नहीं है । जो देखनेमें नहीं आता,
वही होता है । परमात्मा देखनेमें न आनेपर भी हैं । नाम, जाति आदिके होनेमें कोई शास्त्र आदिका प्रमाण नहीं
है, प्रत्युत
यह केवल आपकी कल्पना है । परन्तु परमात्माके होनेमें शास्त्र, वेद, सन्त-महात्मा
प्रमाण हैं और उसको माननेका फल भी विलक्षण (कल्याण) है । इसलिये परमात्माको दृढ़तासे
मानो ।
गलती तो पैदा होनेवाली और मिटनेवाली है,
पर परमात्मा पैदा होनेवाला और मिटनेवाला नहीं है । पैदा होनेवाली
वस्तुसे पैदा न होनेवाली वस्तुका निषेध क्यों करते हो ? हमारेसे झूठ-कपट हो गया तो
यह परमात्माका होनापन थोड़े ही मिट गया ! परमात्माके होनेमें क्या बाधा लगी ?
यह मानो कि पाप हो गया तो वह भूल हुई,
पर परमात्मा है‒यह भूल नहीं है । परमात्माको जितनी दृढ़तासे मानोगे,
उतनी भूलें होनी मिट जायँगी । जिस समय भूल होती है उस समय आप
‘परमात्मा है’‒इसको याद नहीं रखते । इसकी याद न रहनेसे ही भूल होती है । जो
‘है’ उससे विमुख हो जाते हैं, उसको भूल जाते हैं, तब यह भूल होती है । इसलिये अपनेको उससे विमुख होना ही नहीं
है । कभी अचानक कोई भूल हो भी जाय तो उस भूलको महत्त्व मत
दो । जो सच्ची चीज है, उसको महत्त्व दो । भूल तो मिट जाती है, पर परमात्मा रहता है, मिटता है ही नहीं । जो हरदम रहता है,
उसको मानो । अब बोलो, क्या बाधा लगी ? |