श्रोता‒वर्षोंसे
यह बात सुनते हैं, पर फिर भी खालीपन
मालूम देता है ! स्वामीजी‒पर खालीपनका ज्ञान आपको है कि नहीं ? खालीपनका ज्ञान भी खाली है क्या ? आप ज्ञानका तो निरादर करते
हैं और खालीपनका आदर करते हैं । ज्ञान तो ठोस है, उसमें खालीपन है ही नहीं । खालीपन (नहीं)-को जाननेवाला ठोस
(है) ही हुआ, खाली कैसे हुआ ? वास्तवमें खालीपन है नहीं । असत्की सत्ता माननेसे ही खालीपन
दीखता है;
क्योंकि असत्की सत्ता नहीं है । तात्पर्य है कि आपने असत्की
सत्ता मान रखी है और असत्की प्राप्ति होती नहीं, तब खालीपन दीखता है । दूसरी बात,
आपने खालीपनकी सत्ता मानी है तो क्या सत्ता खाली होती है ? सत्ता
भी खाली नहीं होती और ज्ञान भी खाली नहीं होता । सत्ता (सत्) और ज्ञान (चित्)‒दोनों
परमात्माके स्वरूप हैं । अब परमात्मा है‒इसको माननेमें क्या बाधा लगी ?
इसको आप रद्दी मत करो । इस तरफ आप खयाल नहीं करते,
इतनी ही बाधा है । इसका अभाव थोड़े ही हुआ है ? इधर खयाल करना है‒इतना ही काम है आपका । परमात्मा ज्यों-का-त्यों है । उसको कोई बनाना नहीं
है, पैदा
करना नहीं है, केवल उधर खयाल करना है कि वह है । उसका हमारे साथ नित्य-सम्बन्ध है, नित्ययोग
है । संसारके वियोगका अनुभव होनेपर
परमात्माके नित्ययोगका अनुभव हो जायगा । परमात्माका नित्ययोग मानो तो ‘योग’ हो जायगा और संसारका नित्यवियोग मानो तो ‘योग’ हो जायगा । बात एक ही ठहरेगी ! आप इसको महत्त्व नहीं दे रहे
हैं । जो आने-जानेवाले हैं, उन रुपयों आदिको तो महत्त्व देते हो,
पर रहनेवालेको महत्त्व नहीं देते । आने-जानेवालेको अस्वीकार
करो और रहनेवालेको स्वीकार करो । अस्वीकार करनेका नाम भी ‘योग’ है और स्वीकार करनेका नाम भी ‘योग’ है ।
जो चीज आदि और अन्तमें नहीं होती, वह
बीचमें भी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है । जैसे, स्वप्न आया तो उससे पहले स्वप्न नहीं था, बादमें भी स्वप्न नहीं रहा; अतः स्वप्नके समय भी ‘नहीं’ ही मुख्य था, स्वप्न मुख्य नहीं था । इसलिये ‘नहीं’ निरन्तर रहा । इसी तरह संसार पहले नहीं था,
पीछे नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी निरन्तर ‘नहीं’ में ही जा रहा है; अतः इसमें ‘नहीं’ ही मुख्य है । इसमें बाधा क्या लगी ? |