।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७८, बुधवार
             सत्‌-असत्‌का विवेक


श्रोता‒वर्षोंसे यह बात सुनते हैं, पर फिर भी खालीपन मालूम देता है !

स्वामीजी‒पर खालीपनका ज्ञान आपको है कि नहीं ? खालीपनका ज्ञान भी खाली है क्या ? आप ज्ञानका तो निरादर करते हैं और खालीपनका आदर करते हैं । ज्ञान तो ठोस है, उसमें खालीपन है ही नहीं । खालीपन (नहीं)-को जाननेवाला ठोस (है) ही हुआ, खाली कैसे हुआ ? वास्तवमें खालीपन है नहीं । असत्‌की सत्ता माननेसे ही खालीपन दीखता है; क्योंकि असत्‌की सत्ता नहीं है । तात्पर्य है कि आपने असत्‌की सत्ता मान रखी है और असत्‌की प्राप्ति होती नहीं, तब खालीपन दीखता है । दूसरी बात, आपने खालीपनकी सत्ता मानी है तो क्या सत्ता खाली होती है ? सत्ता भी खाली नहीं होती और ज्ञान भी खाली नहीं होता । सत्ता (सत्) और ज्ञान (चित्)‒दोनों परमात्माके स्वरूप हैं । अब परमात्मा है‒इसको माननेमें क्या बाधा लगी ? इसको आप रद्‌दी मत करो । इस तरफ आप खयाल नहीं करते, इतनी ही बाधा है । इसका अभाव थोड़े ही हुआ है ? इधर खयाल करना है‒इतना ही काम है आपका ।

परमात्मा ज्यों-का-त्यों है । उसको कोई बनाना नहीं है, पैदा करना नहीं है, केवल उधर खयाल करना है कि वह है । उसका हमारे साथ नित्य-सम्बन्ध है, नित्ययोग है । संसारके वियोगका अनुभव होनेपर परमात्माके नित्ययोगका अनुभव हो जायगा । परमात्माका नित्ययोग मानो तो योग’ हो जायगा और संसारका नित्यवियोग मानो तो योग’ हो जायगा । बात एक ही ठहरेगी ! आप इसको महत्त्व नहीं दे रहे हैं । जो आने-जानेवाले हैं, उन रुपयों आदिको तो महत्त्व देते हो, पर रहनेवालेको महत्त्व नहीं देते । आने-जानेवालेको अस्वीकार करो और रहनेवालेको स्वीकार करो । अस्वीकार करनेका नाम भी योग’ है और स्वीकार करनेका नाम भी योग’ है ।

जो चीज आदि और अन्तमें नहीं होती, वह बीचमें भी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है । जैसे, स्वप्न आया तो उससे पहले स्वप्न नहीं था, बादमें भी स्वप्न नहीं रहा; अतः स्वप्नके समय भी नहीं’ ही मुख्य था, स्वप्न मुख्य नहीं था । इसलिये नहीं’ निरन्तर रहा । इसी तरह संसार पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी निरन्तर नहीं’ में ही जा रहा है; अतः इसमें नहीं’ ही मुख्य है । इसमें बाधा क्या लगी ?