श्रोता‒‘नहीं’ की
ममता-आसक्ति नहीं मिटती ! स्वामीजी‒ममता-आसक्ति रहें, चाहे न रहें, परमात्मा तो रहेगा ही । ममता, आसक्ति, कामना आदि तो आने-जानेवाले हैं और वह रहनेवाला है । रहनेवालेकी तरफ दृष्टि रखो । जो आता है और मिटता है, उसकी
तरफ दृष्टि मत रखो, उसको महत्त्व मत दो । जो आता है,
जाता है; बनता है, बिगड़ता है; पैदा होता है, मिटता है, उसका क्या महत्त्व है ? परमात्मा न आता है, न जाता है, न बनता है, न बिगड़ता है, न पैदा होता है, न मिटता है, इसलिये वह ‘है’ । आसक्ति हो जाय तो होने दो, कामना हो जाय तो होने दो, उसकी परवाह मत करो । ‘है’ को दृढ़ रखो । आसक्ति हो जाय तो उसमें भी वह है । कामना हो जाय तो उसमें भी
वह है । कुछ भी हो जाय वह तो ज्यों-का-त्यों ही है । उस ‘है’ की तरफ विशेष ध्यान होगा तो ये ममता,
आसक्ति, काम, क्रोध आदि सब मिट जायेंगे, रहेंगे नहीं । ‘है’ को मान लो तो ‘नहीं’ कैसे रहेगा ? जिसका नाम ही ‘नहीं’ है, वह कैसे टिकेगा ? इसमें बाधा यही है कि आप इसका आदर नहीं करते, इसको
महत्त्व नहीं देते । अभी आपको
दस रुपये मिल जायँ तो उसका एक महत्त्व है, पर जो नित्य-निरन्तर रहता है, उसका महत्त्व नहीं है‒यह बड़े आश्चर्यकी बात है ! शास्त्रोंने,
वेदोंने, पुराणोंने ‘है’ को ही महत्त्व दिया है । सन्त-महात्माओंने भी इसीको महत्त्व
दिया है, तभी तो संसारके बनने-बिगड़नेका उनपर असर नहीं पड़ता । जो निरन्तर रहता है,
उस ‘है’ में क्या फर्क पड़े ? क्या दुःख हो ? क्या सन्ताप हो ? है सो
सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं । नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं ॥ जो है, वह आँखोंसे नहीं दीखता । जो आँखोंसे दीखता
है, वह रहता नहीं । कहते हैं
कि जो आँखोंसे नहीं दीखता, उसको कैसे मानें ? यह समझदारका प्रश्न नहीं है । समझदारका प्रश्न तो यह होना चाहिये कि जो आँखोंसे दीखता है, उसको
कैसे मानें ? क्योंकि आँखोंसे जो दीखता है, वह तो मिटता है, बिगड़ता है, बदलता
है । यह बिलकुल प्रत्यक्ष बात है । जो स्थिर नहीं रहता,
बदलता है, उसको हम कैसे मान सकते हैं ?
नदीमें जैसे जल बहता है, ऐसे सब संसार बह रहा है, मौतकी तरफ जा रहा है, अभावकी तरफ जा रहा है । इसको हम ‘है’ कैसे मानें ? बड़ी सीधी और सरल बात है । इसमें कठिनता है ही नहीं
। कठिनता यही है कि आप इसको महत्त्व नहीं दे रहे हैं, इसको
कीमती नहीं समझ रहे हैं । जो पुरुष संसारको महत्त्व नहीं देते,
धन-सम्पत्तिको महत्त्व नहीं देते,
वे भी जीते हैं कि नहीं ? आप महत्त्व नहीं दोगे तो क्या मर जाओगे ?
जो महत्त्व नहीं देते, उनके पास कोई अधिक महत्त्ववाली वस्तु है,
तभी तो महत्त्व नहीं देते ! उनमें यह सन्देह ही नहीं होता,
शंका ही नहीं होती कि इसके बिना काम कैसे चलेगा ! जैसे बचपनमें
आप खिलौनोंको महत्त्व देते थे, पर अब उनको महत्त्व नहीं देते । कारण कि अब आपने रुपये आदि चीजोंको
महत्त्व दे दिया । रुपये आदिको महत्त्व न देकर सत्-तत्त्व
(‘है’)-को महत्त्व दो तो असत्की सत्ताका स्वतः ही निरादर
हो जायगा । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे |