जिसका सदा ही अभाव है, उसकी सत्ता भूलसे मानी हुई, दी हुई है । मानी हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती, कल्पना की हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती, दी हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती । इसी तरह संसारकी सुनी
हुई, कही हुई और चिन्तन की हुई सत्ताकी सत्ता
नहीं होती; क्योंकि वास्तवमें
संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । परन्तु स्वयं सत्-स्वरूप है; अतः यह जिसकी सत्ता मान लेता है, उसकी सत्ता दीखने लग जाती है; जैसे‒अग्निमें लकड़ी, कोयला, कंकड़ पत्थर, ठीकरी आदि जो भी रखें, वही चमकने लग जाता है । असत्का भान तो हो सकता है, पर उसकी सत्ता नहीं हो सकती । कारण कि जिसका कभी भी और कहीं भी अभाव है, उसका सदा-सर्वत्र अभाव-ही-अभाव है । परन्तु सत्-तत्त्व परमात्माका किसी
भी देशमें अभाव नहीं है, किसी भी कालमें अभाव नहीं है, किसी भी क्रियामें अभाव नहीं है, किसी भी वस्तुमें अभाव नहीं है, किसी भी व्यक्तिमें अभाव नहीं है, किसी भी अवस्थामें अभाव नहीं है, किसी भी परिस्थितिमें अभाव नहीं है, किसी भी घटनामें अभाव नहीं है । जिसका कभी भी और कहीं भी अभाव नहीं है, उसका सदा-सर्वत्र भाव-ही-भाव है‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें
जा रहे हैं । परंतु परमात्मा पहले भी था, पीछे भी रहेगा और वर्तमानमें भी ज्यों-का-त्यों विद्यमान है । परमात्मामें कभी
फर्क था नहीं, कभी फर्क होगा नहीं, कभी फर्क है नहीं और कभी फर्क हो सकता नहीं । वह नित्य-निरन्तर
ज्यों-का-त्यों रहता है । वह किसीकी दृष्टिमें है और किसीकी दृष्टिमें नहीं है तो इससे
उसका अभाव सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत यह तो दृष्टिदोष है, दृष्टिका अभाव है, जिससे वह होता हुआ भी नहींकी तरह दीखता
है । संसारकी सहज-स्वाभाविक तथा नित्य-निरन्तर
निवृत्ति है और परमात्माकी सहज-स्वाभाविक तथा नित्य-निरन्तर प्राप्ति है । संसारकी प्रतीति है, प्राप्ति नहीं । प्रतीतिकी प्राप्ति नहीं होती और प्राप्तकी
प्रतीति नहीं होती । प्रतीतिकी सर्वथा निवृत्ति है । इस निवृत्तिका कभी नाश नहीं होता
अर्थात् संसारके अभावका कभी अभाव नहीं होता, प्रत्युत नित्य ही अभाव रहता है ।
जिनका संसारमें राग है, उन्हींको यह कहना पड़ता है कि ‘संसार नहीं है, परमात्मा है’ । जिनका संसारमें राग नहीं है, उनको केवल ‘परमात्मा है’ इतना ही कहना पड़ता है । जैसे, रस्सीमें साँप दीखे तो सभय व्यक्तिसे कहते हैं कि ‘साँप नहीं है, रस्सी है’, परन्तु निर्भय व्यक्तिसे केवल ‘रस्सी है’ यही कहना पड़ता है । तात्पर्य है कि
संसारमें राग होनेपर, संसारकी सत्ता माननेपर ही संसारकी निवृत्ति
करनी पड़ती है नहीं तो जिसकी सहज-स्वाभाविक नित्य-निरन्तर निवृत्ति है, उसकी निवृत्ति कहना बनता ही नहीं ! |