।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७८, रविवार
                असत्‌का वर्णन


संसारका स्वरूप है‒पदार्थ और क्रिया । जब अज्ञताके कारण संसारकी सत्ता मान लेते हैं, तब पदार्थको लेकर संयोग (पाने)-की रुचि और क्रियाको लेकर करनेकी रुचि होती है । पदार्थोंके संयोगकी और करनेकी रुचि होनेसे नित्य निवृत्तिमें भी प्रवृत्ति प्रतीत होती है । परन्तु प्रवृत्ति प्रतीत होनेपर भी निवृत्ति ज्यों-की-त्यों रहती है । अतः पदार्थोंके संयोगकी और करनेकी रुचिके परिणाममें अभावके सिवाय कुछ नहीं मिलता और अभावको कोई भी नहीं चाहता ।

जीवका जड-अंशकी प्रधानतासे संसारकी तरफ भी आकर्षण होता है और चेतन-अंशकी प्रधानतासे परमात्माकी तरफ भी आकर्षण होता है । दोनोंमें आकर्षण होते हुए भी संसारके आकर्षणसे परिणाममें अभाव ही मिलता है अर्थात् कुछ भी नहीं मिलता और परमात्माके आकर्षणसे परिणाममें प्रेम मिलता है, परमात्मा मिलता है, जिसके मिलनेसे कुछ भी मिलना बाकी नहीं रहता है । प्रेम तथा बोध‒दोनों एक ही हैं । बोधके बिना प्रेम आसक्ति’ है; क्योंकि संसारके अभावका बोध न होनेपर संसारमें आसक्ति होती है, प्रेम नहीं होता और प्रेमके बिना बोध शून्य’ है; क्योंकि संसारका अभाव करते-करते अभाव (शून्य) ही शेष रह जाता है ।

असत्‌से अलग हुए बिना असत्‌का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें हम असत्‌से सर्वथा अलग हैं । सत्‌से अभिन्न हुए बिना सत्‌का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें (स्वरूपसे) हम सत्‌से सर्वथा अभिन्न हैं । असत्‌से अलग होनेका अर्थ है‒असत्‌में राग न होना और सत्‌से अभिन्न होनेका अर्थ है‒सत्‌में प्रियता होना ।

सदा-सर्वदा निवृत्त रहनेपर भी असत्‌का राग, आकर्षण, महत्त्वबुद्धि, सुखबुद्धि रहते हुए असत्‌का ज्ञान अर्थात् निवृत्ति नहीं होती और सदा-सर्वदा प्राप्त रहनेपर भी सत्‌में प्रियता हुए बिना सत्‌का ज्ञान अर्थात् प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत केवल चर्चा अर्थात् सीखनामात्र होता है । सीखनेमात्रसे अपनी जानकारीका अभिमान तो हो सकता है, पर अनुभव नहीं हो सकता ।

असत्‌में राग न होनेसे असत्‌का ज्ञान हो जाता है । असत्‌का ज्ञान होते ही अर्थात् असत्‌को असत् (अभाव)-रूपसे जानते ही असत्‌की निवृत्ति तथा सत्‌की प्राप्ति हो जाती है और सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है । सत्‌में प्रियता होनेसे सत्‌का ज्ञान हो जाता है । सत्‌का ज्ञान होते ही अर्थात् सत्‌को सत् (भाव)-रूपसे जानते ही सत्‌की प्राप्ति हो जाती है और आनन्द मिल जाता है ।

असत्‌की निवृत्ति और सत्‌की प्राप्ति‒ये दोनों एक ही हैं । ऐसे ही सम्पूर्ण दुःखोंका नाश और आनन्दकी प्राप्ति भी एक ही हैं, केवल कहनेमें भेद है । कारण कि वास्तवमें असत् कभी था नहीं, है नहीं और रहेगा नहीं, पर सत् (परमात्मा) सदा ही था, है और रहेगा । सत्‌को मानें या न मानें, जानें या न जानें, स्वीकार करें या न करें, अनुभव करें या न करें, सत्‌की सत्ता सदा विद्यमान रहती है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!