जिसको हम जानते हैं, उसका त्याग करनेसे स्वतःसिद्ध तत्त्वका
अनुभव हो जाता है । वास्तवमें असत्की सत्ता विद्यमान है ही नहीं—‘नासतो विद्यते भावः’ । असत्का अत्यन्त अभाव है । मैं, तू, यह और वह—इन चारोंकी सत्ता ही नहीं है । जो कुछ भी देखने, सुनने,
मानने, चिन्तन करनेमें आता है, वह वास्तवमें है ही नहीं । इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और
अहंकार—ये तीनों ही नहीं हैं । हम जानते है कि संसार निरन्तर बदलता है । यह जैसा पहले था,
वैसा अब नहीं है और जैसा अब है, वैसा आगे नहीं रहेगा । परन्तु ऐसा जानते हुए भी हम
संसारकी सत्ता मानते हैं—यह जाने
हुए असत्की सत्ताको स्वीकार करना है । जाने हुए असत्की सत्ताको स्वीकार करना और उसको महत्त्व
देना ही बन्धनका मूल कारण है । मनुष्यमात्रमें असत्का त्याग करनेकी सामर्थ्य भी है और
स्वतन्त्रता भी ! असत्का त्याग करनेमें कोई भी असमर्थ और पराधीन नहीं है । अब विचार इस बातपर करना है कि असत्को असत्-रूपसे जानते हुए
भी उसका आकर्षण क्यों हो रहा है ? उसका त्याग क्यों नहीं हो रहा है ? जब हम अपनेमें असत्की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं और सत्ता
स्वीकार करके महत्ता दे देते हैं, तब असत्का आकर्षण होता है । संयोगजन्य सुखकी इच्छा करना ही अपनेमें असत्की सत्ता और
महत्ता स्वीकार करना है । हम विचारके समय तो संसारको असत् मानते हैं, पर
अन्य समय असत्के संगका सुख भोगते हैं, इसलिये (सुखासक्तिके कारण) असत्का त्याग
करनेमें कठिनता मालूम दे रही है । संयोगजन्य सुखके पहले उसके अभावका दुःख है, अन्तमें उसके
वियोगका दुःख है तथा बीचमें भी उसका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है—यह ज्ञान होनेपर सुखकी इच्छा मिट जाती है । कारण कि अभाव ही
शेष रहता है और अभावमें सुख हो ही नहीं सकता । गीतामें आया हैं— ये ही संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ (५/२२) ‘हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके
संयोगसे पैदा होनेवाले भोग हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं । अतः
विवेकी मनुष्य उनमें रमण नहीं करता ।’ विवेकका अनादर करनेके कारण मनुष्य आरम्भको देखता है, परिणाम
नहीं । सुखभोगके परिणाममें दुःख आयेगा ही—यह नियम है । कारण कि सुखभोगके परिणाममें अपनी
शक्तिका ह्रास और भोग्य वस्तुका नाश होता ही है—यह नियम है । यदि मनुष्य सुखभोगके परिणामपर विचार करे, उसके परिणामको महत्त्व दे तो
सुखभोगकी रुचि मिट जायगी; क्योंकि दुःख और अभावको कोई भी नहीं चाहता । दुःख
और अभाव स्वाभाविक अरुचिकर होता है । इसलिये गीता कहती है— विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ (१८/३८) ‘जो सुख इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे
आरम्भमें अमृतकी तरह और परिणाममें विषकी तरह होता है, वह सुख राजस कहा गया है[*] । तात्पर्य है कि आरम्भमें भोग्य-पदार्थ बड़े अच्छे लगते हैं
और उनमें बड़ा सुख मालूम देता है । परन्तु उनको भोगते-भोगते जब परिणाममें वह सुख
नीरसतामें परिणत हो जाता है और उससे सर्वथा अरुचि हो जाती है, तब वही सुख विषकी
तरह मालूम देता है । वास्तवमें सुखकी रुचि बनावटी है और अरुचि स्वाभाविक है ।
[*] रजोगुण रागरूप ही होता है—‘रजो
रागात्मकं विद्धि’ (गीता १४/७) और उसका फल दुःख ही होता है—‘रजसस्तु फलं दुःखम्’ (गीता १४/१६) । |