।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
 फाल्गुन शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
   असत्‌का त्याग तथा सत्‌की खोज


जिसको हम जानते हैं, उसका त्याग करनेसे स्वतःसिद्ध तत्त्वका अनुभव हो जाता है । वास्तवमें असत्‌की सत्ता विद्यमान है ही नहीं‘नासतो विद्यते भावः’ । असत्‌का अत्यन्त अभाव है । मैं, तू, यह और वहइन चारोंकी सत्ता ही नहीं है । जो कुछ भी देखने, सुनने, मानने, चिन्तन करनेमें आता है, वह वास्तवमें है ही नहीं । इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और अहंकारये तीनों ही नहीं हैं ।

हम जानते है कि संसार निरन्तर बदलता है । यह जैसा पहले था, वैसा अब नहीं है और जैसा अब है, वैसा आगे नहीं रहेगा । परन्तु ऐसा जानते हुए भी हम संसारकी सत्ता मानते हैंयह जाने हुए असत्‌की सत्ताको स्वीकार करना है । जाने हुए असत्‌की सत्ताको स्वीकार करना और उसको महत्त्व देना ही बन्धनका मूल कारण है ।

मनुष्यमात्रमें असत्‌का त्याग करनेकी सामर्थ्य भी है और स्वतन्त्रता भी ! असत्‌का त्याग करनेमें कोई भी असमर्थ और पराधीन नहीं है । अब विचार इस बातपर करना है कि असत्‌को असत्‌-रूपसे जानते हुए भी उसका आकर्षण क्यों हो रहा है ? उसका त्याग क्यों नहीं हो रहा है ?

जब हम अपनेमें असत्‌की सत्ता स्वीकार कर लेते हैं और सत्ता स्वीकार करके महत्ता दे देते हैं, तब असत्‌का आकर्षण होता है । संयोगजन्य सुखकी इच्छा करना ही अपनेमें असत्‌की सत्ता और महत्ता स्वीकार करना है । हम विचारके समय तो संसारको असत्‌ मानते हैं, पर अन्य समय असत्‌के संगका सुख भोगते हैं, इसलिये (सुखासक्तिके कारण) असत्‌का त्याग करनेमें कठिनता मालूम दे रही है ।

संयोगजन्य सुखके पहले उसके अभावका दुःख है, अन्तमें उसके वियोगका दुःख है तथा बीचमें भी उसका प्रतिक्षण अभाव हो रहा हैयह ज्ञान होनेपर सुखकी इच्छा मिट जाती है । कारण कि अभाव ही शेष रहता है और अभावमें सुख हो ही नहीं सकता । गीतामें आया हैं

ये ही संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते ।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥

(५/२२)

‘हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं । अतः विवेकी मनुष्य उनमें रमण नहीं करता ।’

विवेकका अनादर करनेके कारण मनुष्य आरम्भको देखता है, परिणाम नहीं । सुखभोगके परिणाममें दुःख आयेगा हीयह नियम है । कारण कि सुखभोगके परिणाममें अपनी शक्तिका ह्रास और भोग्य वस्तुका नाश होता ही हैयह नियम है । यदि मनुष्य सुखभोगके परिणामपर विचार करे, उसके परिणामको महत्त्व दे तो सुखभोगकी रुचि मिट जायगी; क्योंकि दुःख और अभावको कोई भी नहीं चाहता । दुःख और अभाव स्वाभाविक अरुचिकर होता है । इसलिये गीता कहती है

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्     ।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥

(१८/३८)

‘जो सुख इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे आरम्भमें अमृतकी तरह और परिणाममें विषकी तरह होता है, वह सुख राजस कहा गया है[*]

तात्पर्य है कि आरम्भमें भोग्य-पदार्थ बड़े अच्छे लगते हैं और उनमें बड़ा सुख मालूम देता है । परन्तु उनको भोगते-भोगते जब परिणाममें वह सुख नीरसतामें परिणत हो जाता है और उससे सर्वथा अरुचि हो जाती है, तब वही सुख विषकी तरह मालूम देता है । वास्तवमें सुखकी रुचि बनावटी है और अरुचि स्वाभाविक है ।



[*] रजोगुण रागरूप ही होता है—‘रजो रागात्मकं विद्धि’ (गीता १४/७) और उसका फल दुःख ही होता है—‘रजसस्तु फलं दुःखम्’ (गीता १४/१६) ।