।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७८, मंगलवार
   असत्‌का त्याग तथा सत्‌की खोज


केवल दूसरोंको सुख देनेका स्वभाव बन जाय तो सुखासक्ति सुगमतापूर्वक मिट जाती है । कारण कि असत्‌से सुख लेनेके कारण ही अपनेमें पराधीनता प्रतीत होती है । इसलिये साधकको यह दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिये कि मेरेको असत्‌से सुख लेना ही नहीं है ।

एक मार्मिक बात है कि ढीली प्रकृतिवाला अर्थात्‌ शिथिल स्वभाववाला मनुष्य असत्‌का जल्दी त्याग नहीं कर सकता । एक विचार किया और उसको छोड़ दिया । फिर दूसरा विचार किया और उसको छोड़ दियाइस प्रकार बार-बार विचार करने और उसको छोड़ते रहनेसे आदत बिगड़ जाती है । इस बिगड़ी हुई आदतके कारण ही वह असत्‌के त्यागकी बातें तो सीख जाता है, पर असत्‌का त्याग नहीं कर पाता । अगर असत्‌का त्याग कर भी देता है तो स्वभावकी ढिलाईसे फिर उसको सत्ता दे देता है । स्वभावकी यह शिथिलता स्वयं साधककी बनायी हुई है । अतः साधकके लिये यह बहुत आवश्यक है कि वह अपना स्वभाव दृढ़ रहनेका बना ले । एक बार वह जो विचार कर ले, फिर उसपर वह दृढ़ रहे‘भजन्ते मां दृढव्रताः’ (गीता ७/२८) । छोटी-सी-छोटी बातमें भी वह दृढ़ (पक्का) रहे तो उसमें असत्‌का त्याग करनेकी शक्ति आ जायगी ।

साधकमें एक तो असत्‌की रुचि (भोगेच्छा) है और एक सत्‌की भूख (जिज्ञासा) है । यह सिद्धान्त है कि असत्‌की रुचि असत्‌में नहीं होती और सत्‌की भूख सत्‌में नहीं होती । जिसमें असत्‌की रुचि और सत्‌की भूख है, वह जीव है । रुचि ‘कामना’ है और भूख ‘आवश्यकता’ है । कामना कभी पूरी नहीं होती, प्रत्युत उसकी निवृत्ति ही होती है । परन्तु आवश्यकता पूरी होनेवाली ही होती है । मनुष्यमें केवल कामना तो नहीं रह सकती, पर केवल आवश्यकता रह सकती है । केवल आवश्यकता रहते ही उसकी पूर्ति हो जाती है । जैसे जबतक लकड़ी रहती है, तबतक आग रहती है । लकड़ी समाप्त होते ही आग शान्त हो जाती है । ऐसे ही जबतक कामना (भोगेच्छा) है, तबतक आवश्यकता (जिज्ञासा) है । कामनाके कारण ही आवश्यकता है । इसलिये कामना मिटते ही आवश्यकता पूरी हो जाती है । अतः साधकको चाहिये कि वह आवश्यकतामें कामनाको मिला दे अर्थात्‌ उसके जीवनमें कामना न रहे, प्रत्युत एक आवश्यकता ही रहे । असत्‌की रुचि न रहे, प्रत्युत सत्‌की रुचि रहे और सत्‌की ही भूख रहे । सत्‌की भूख ही जिज्ञासा कहलाती है । जिज्ञासा और जिज्ञास्य-तत्त्वमें कोई भेद नहीं है । परन्तु जबतक जिज्ञासु रहता है अर्थात्‌ अहम्‌ रहता है, तबतक जिज्ञासा और जिज्ञास्य-तत्त्वकी एकता स्पष्ट नहीं होती । अहम्‌के मिटनेपर जिज्ञासु नहीं रहता, प्रत्युत जिज्ञासामात्र रह जाती है । जिज्ञासामात्र रहते ही जिज्ञासा जिज्ञास्य-तत्त्वसे एक हो जाती है अर्थात्‌ आवश्यकताकी पूर्ति हो जाती है ।