।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८, बुधवार
   असत्‌का त्याग तथा सत्‌की खोज


असत्‌ नित्यनिवृत्त है, इसलिये उसका त्याग होता है और सत्‌ नित्यप्राप्त है, इसलिये उसकी खोज होती है । निर्माण और खोजदोनोंमें बहुत अन्तर है । निर्माण उस वस्तुका होता है, जिसका पहलेसे अभाव होता है और खोज उस वस्तुकी होती है जो पहलेसे ही विद्यमान होती है । सत्‌का अभाव विद्यमान है ही नहीं‘नाभावो विद्यते सतः’; अतः सत्‌की खोज होती है, निर्माण नहीं होता । जब साधक सत्‌की सत्ताको स्वीकार करता है, तब खोज होती है । खोजके दो प्रकार हैंएक कण्ठी कहीं रखकर भूल जायँ तो उसको हम जगह-जगह ढूँढ़ते हैं । परमात्मतत्त्वकी खोज गलेमें पड़ी कण्ठीकी खोजके समान है । तात्पर्य है कि जिस परमात्मतत्त्वको हम चाहते हैं और जिसकी हम खोज करते हैं, वह परमात्मतत्त्व अपनेमें ही है ! परन्तु संसार अपनेमें नहीं है । जो अपनेमें है, उसकी खोज करनेसे परिणाममें वह मिल जाता है । परन्तु जो अपनेमें नहीं है, उसकी खोज करनेसे परिणाममें वह मिलता नहीं, क्योंकि उसकी सत्ता ही नहीं है ।

परमात्मतत्त्व कभी अप्राप्त है ही नहीं । उसकी विस्मृति हुई है, अप्राप्ति नहीं हुई है । यह विस्मृति अनादी और सान्त (अन्त होनेवाली) है । जैसे दो व्यक्ति आपसमें एक-दूसरेको पहचानते नहीं तो यह अपरिचय कबसे हैइसको कोई बता नहीं सकता । हम संस्कृत भाषा नहीं जानते तो यह न जानना कबसे हैइसको हम नहीं बता सकते । तात्पर्य है कि व्यक्तियोंकी सत्ता, हमारी सत्ता, संस्कृत भाषाकी सत्ता तो पहलेसे ही है, पर उनका परिचय पहलेसे नहीं है । ऐसे ही विस्मृतिके समय भी परमात्मतत्त्वकी सत्ता ज्यों-की-त्यों है । परमात्मतत्त्व तो नित्यप्राप्त है, पर उसकी विस्मृति है अर्थात्‌ उधर दृष्टि नहीं है, उससे विमुखता है, उससे अपरिचय है, उसकी अप्राप्तिका वहम है । परमात्मतत्त्वकी खोज करनेपर यह विस्मृति मिट जाती जाती है और स्मृति प्राप्त हो जाती है‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८/७३) ।

परमात्मतत्त्वकी खोजमें अभ्यास नहीं है । अभ्यास करनेसे हम तत्त्वसे अलग हो जाते हैं । ज्यों अभ्यास करते हैं, त्यों तत्त्वसे अलग होते हैं । इसलिये कहा है

श्रुति  पुरान  बहु  कहेउ उपाई ।

छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥

(मानस ७/ ११६ / ६)

अगर साधकको अभ्यास करना ही हो तो इतना ही अभ्यास करे कि ‘मुझे कुछ नहीं करना है !’ हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । सत्तामात्रमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई कमी नहीं आती । कारण कि भावका अभाव हो ही कैसे सकता है ! इसलिये अपने लिये कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी चीजकी जरूरत हुई नहीं, है नहीं, होगी नहीं और हो सकती नहीं । अतः अपने लिये अपनेको कुछ नहीं करना है । करने तथा न करनेका आग्रह होनेसे अहंकार आता है और करने तथा न करनेका आग्रह न होनेसे अहंकार छूट जाता है । असत्‌के संगके बिना स्वरूप कुछ कर सकता ही नहीं; क्योंकि स्वरूपमें कर्तृत्व है ही नहीं । समाधिमें भी असत्‌का संग रहता है, जिसके कारण समाधि और व्युत्थानये दो अवस्थाएँ होती हैं । परन्तु कुछ न करनेमें असत्‌का संग नहीं है । पहले भी कुछ नहीं था, पीछे भी कुछ नहीं रहेगा; अतः अभी भी कुछ नहीं है‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका ४/३१) । कुछ नहीं करना निरन्तर है । घोर-से-घोर प्रवृत्तिमें भी निवृत्ति निरन्तर है । इस निवृत्तिको अर्थात्‌ कुछ नहीं करनेको ही ‘परम विश्राम’ कहा गया है‘पायो परम बिश्रामु’ (मानस ७/१३०/छं३) । श्रमका तो आदि और अन्त होता है, पर विश्रामका आदि और अन्त नहीं होता । विश्राम निरन्तर रहता है । श्रमके समय भी विश्राम ज्यों-का-त्यों रहता है । परन्तु हमारी दृष्टि श्रमपर ही रहती है, विश्रामकी तरफ नहीं जाती । असत्‌का सर्वथा त्याग होनेपर नित्यप्राप्त विश्रामकी प्राप्ति हो जाती है ।