असत् नित्यनिवृत्त है, इसलिये उसका त्याग होता है और सत्
नित्यप्राप्त है, इसलिये उसकी खोज होती है । निर्माण और खोज—दोनोंमें बहुत अन्तर है । निर्माण
उस वस्तुका होता है, जिसका पहलेसे अभाव होता है और खोज उस वस्तुकी होती है जो
पहलेसे ही विद्यमान होती है । सत्का अभाव विद्यमान है ही नहीं—‘नाभावो विद्यते सतः’; अतः सत्की खोज होती है, निर्माण नहीं होता । जब साधक सत्की
सत्ताको स्वीकार करता है, तब खोज होती है । खोजके दो प्रकार हैं—एक कण्ठी कहीं रखकर भूल जायँ तो उसको हम जगह-जगह ढूँढ़ते
हैं । परमात्मतत्त्वकी खोज गलेमें पड़ी कण्ठीकी खोजके
समान है । तात्पर्य है कि जिस परमात्मतत्त्वको हम चाहते हैं और जिसकी हम खोज करते
हैं, वह परमात्मतत्त्व अपनेमें ही है ! परन्तु संसार अपनेमें नहीं है । जो
अपनेमें है, उसकी खोज करनेसे परिणाममें वह मिल जाता है । परन्तु जो अपनेमें नहीं
है, उसकी खोज करनेसे परिणाममें वह मिलता नहीं, क्योंकि उसकी सत्ता ही नहीं है । परमात्मतत्त्व
कभी अप्राप्त है ही नहीं । उसकी विस्मृति हुई है, अप्राप्ति नहीं हुई है । यह विस्मृति अनादी और सान्त (अन्त होनेवाली) है । जैसे दो व्यक्ति आपसमें
एक-दूसरेको पहचानते नहीं तो यह अपरिचय कबसे है—इसको कोई बता नहीं सकता । हम संस्कृत भाषा नहीं जानते तो यह
न जानना कबसे है—इसको हम
नहीं बता सकते । तात्पर्य है कि व्यक्तियोंकी सत्ता, हमारी सत्ता, संस्कृत भाषाकी
सत्ता तो पहलेसे ही है, पर उनका परिचय पहलेसे नहीं है । ऐसे ही विस्मृतिके समय भी
परमात्मतत्त्वकी सत्ता ज्यों-की-त्यों है । परमात्मतत्त्व
तो नित्यप्राप्त है, पर उसकी विस्मृति है अर्थात् उधर दृष्टि नहीं है, उससे
विमुखता है, उससे अपरिचय है, उसकी अप्राप्तिका वहम है । परमात्मतत्त्वकी
खोज करनेपर यह विस्मृति मिट जाती जाती है और स्मृति प्राप्त हो जाती है—‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८/७३) । परमात्मतत्त्वकी खोजमें अभ्यास नहीं है । अभ्यास करनेसे हम तत्त्वसे अलग हो जाते हैं । ज्यों
अभ्यास करते हैं, त्यों तत्त्वसे अलग होते हैं । इसलिये कहा है— श्रुति पुरान बहु
कहेउ उपाई । छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥ (मानस ७/ ११६ / ६)
अगर साधकको अभ्यास करना ही हो तो इतना ही अभ्यास
करे कि ‘मुझे कुछ नहीं करना है !’ हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है । सत्तामात्रमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कोई
कमी नहीं आती । कारण कि भावका अभाव हो ही कैसे सकता है ! इसलिये अपने लिये कभी
किञ्चिन्मात्र भी किसी चीजकी जरूरत हुई नहीं, है नहीं, होगी नहीं और हो सकती नहीं
। अतः अपने लिये अपनेको कुछ नहीं करना है । करने तथा न
करनेका आग्रह होनेसे अहंकार आता है और करने तथा न करनेका आग्रह न होनेसे अहंकार
छूट जाता है । असत्के संगके बिना स्वरूप कुछ कर सकता ही नहीं; क्योंकि
स्वरूपमें कर्तृत्व है ही नहीं । समाधिमें भी असत्का संग रहता है, जिसके कारण
समाधि और व्युत्थान—ये दो
अवस्थाएँ होती हैं । परन्तु कुछ न करनेमें असत्का संग
नहीं है । पहले भी कुछ नहीं था, पीछे भी कुछ नहीं रहेगा; अतः अभी भी कुछ
नहीं है—‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’ (माण्डूक्यकारिका ४/३१) । कुछ नहीं करना निरन्तर है । घोर-से-घोर प्रवृत्तिमें भी
निवृत्ति निरन्तर है । इस निवृत्तिको अर्थात् कुछ नहीं करनेको ही ‘परम विश्राम’ कहा गया है—‘पायो परम बिश्रामु’ (मानस ७/१३०/छं॰३) । श्रमका तो
आदि और अन्त होता है, पर विश्रामका आदि और अन्त नहीं होता । विश्राम निरन्तर रहता
है । श्रमके समय भी विश्राम ज्यों-का-त्यों रहता है । परन्तु हमारी दृष्टि श्रमपर
ही रहती है, विश्रामकी तरफ नहीं जाती । असत्का सर्वथा त्याग होनेपर नित्यप्राप्त
विश्रामकी प्राप्ति हो जाती है । |