।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
   असत्‌का त्याग तथा सत्‌की खोज


वास्तवमें असत्‌के त्यागमें ही सत्‌की खोज निहित है । ज्ञान भी असत्‌का ही होता है, सत्‌का नहीं । असत्‌को असत्‌-रूपसे जानना ही ज्ञान है । ज्ञानसे असत्‌की निवृत्ति हो जाती है और सत्‌ ज्यों-का-त्यों शेष रहता है; क्योंकि सत्‌ नित्यप्राप्त है । असत्‌की मानी हुई सत्ता और महत्ता ही नित्यप्राप्त सत्‌के अनुभवमें बाधक है । अतः सत्‌की प्राप्ति तो स्वतःसिद्ध है, कमी असत्‌के त्यागकी ही है । सत्‌की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत्‌की निवृत्ति होती है । असत्‌की सत्ता कल्पित है, उसका कोई आधार नहीं है । अतः असत्‌का त्याग स्वतः है, सुगम है और श्रेष्ठ है ! इसमें एक मार्मिक बात है कि वास्तवमें असत्‌का त्याग नहीं करना है, प्रत्युत असत्‌के अभावका अनुभव करना है‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २/१६) ‘असत्‌की सत्ता विद्यमान नहीं है ।’ कारण कि त्याग करनेसे अहम्‌ (त्यागी) शेष रहेगा, जब कि अभावको स्वीकार करनेसे अहम्‌ शेष नहीं रहेगा । जबतक अहंरूपी अणु है, तबतक असत्‌का संग है । असत्‌का वास्तविक त्याग अहंरूपी अणुके टूटनेपर ही होता है ।

स्वरूपमें अहम्‌ नहीं है । अहंरहित स्वरूपका बोध ही वास्तविक बोध है । अहंरहित स्वरूपका बोध होनेके लिये दो युक्तियाँ बहुत कामकी हैं

(१)              सुषुप्तिमें अहम् नहीं रहता, पर स्वरूप रहता है । अतः सभीको सुषुप्तिके समय अहम्‌के अभावका और स्वयंके भावका अनुभव होता है, जिसका स्पष्ट बोध जगनेपर होता है । जैसे, जगनेके बाद हम कहते हैं कि ‘मैं ऐसे सुखसे सोया कि कुछ पता नहीं था’यह अहम्‌का अभाव है और इसका ज्ञान जिसको है, वह अहंरहित स्वरूप है ।

(२)              जीव अनेक योनियोंमें जाता है तो योनियाँ बदलती रहती हैं, शरीर बदलते हैं, पर स्वयं वही रहता है । अलग-अलग योनियोंमें अहम्‌भी अलग-अलग रहता है, पर स्वयंकी सत्ता सभी योनियोंमें एक ही रहती है ।

‘मैं हूँ’यह अहंसहित सत्ता है और ‘है’यह अहंरहित सत्ता है । साधकको चाहिये कि वह ‘मैं हूँ’ को न देखकर ‘है’ में ही रहे । ‘मैं’ (अहम्‌) तो ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’ हो जाता है, पर ‘है’ सदा ‘है’ ही रहता है । तात्पर्य है कि ‘मैं’ तो बदलता है, पर ‘है’ नित्य ज्यों-का-त्यों रहता है । परन्तु जबतक ‘मैं’ रहता है, तबतक ‘है’ का अनुभव नहीं होता, प्रत्युत ‘हूँ’ का ही अनुभव होता है । ‘हूँ’ में ‘मैं’ (असत्‌)-का अंश भी है और ‘है’ (सत्‌)-का अंश भी है । परन्तु ‘मैं’ की मुख्यता रहनेके कारण ‘है’ हूँ हो जाता है । तात्पर्य है कि ‘मैं’ का संस्कार मुख्य होनेसे अन्तःकरणमें ‘मैं’ ही छाया रहता है, जिससे ‘है’ का अनुभव नहीं होता । इतना ही नहीं, ‘मैं’ की मुख्यता होनेसे ‘है’ भी ‘मैं’ के आश्रित दीखता है, जो कि वास्तवमें है नहीं । जब साधक यह अनुभव कर लेता है कि ‘मैं’ एकदेशीय, दृश्य (दीखनेवाला) और ज्ञेय (जाननेमें आनेवाला) है, तब आकाशमें तारेकी तरह ‘मैं’ अल्प हो जाता है और ‘है’ मुख्य हो जाता है । ‘है’ की मुख्यता होनेपर ‘मैं’ की कृत्रिम सत्ता लुप्त हो जाती है; क्योंकि जो अल्प होता है, वह मर्त्य होता हैयदल्पमं तन्मर्त्यम्’ (छान्दोग्य उपनिषद् ७/२४/१) । ‘मैं’ के मिटनेपर ‘हूँ’ ‘है’ में परिणत हो जाता है, जो कि पहलेसे ही है