तेरा साहिब है
घट मांही, बाहर
नैना क्यों खोले । कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब पाया तृण-ओले ॥ ‘मैं’ ही तृण है, जिसकी ओटमें ‘है’ छिपा हुआ है ! इस प्रकार
अहंरहित स्वरूपके साक्षात्कारको ही उपनिषद्में कहा है— आत्मानं चेद् विजानीयात् अयमस्मीति पूरुषः । (बृहदारण्यकोपनिषद् ४/४/१२) इस अहंरहित चिन्मय सत्तामें न देश है, न काल है, न वस्तु
है, न क्रिया है, न व्यक्ति है, न घटना है, न परिस्थिति है, न अवस्था है । न जड़
है, न चेतन है, न स्थावर है, न जंगम है, न लोक है, न परलोक है, कुछ नहीं है, केवल
चिन्मय सत्तामात्र है । इस चिन्मय सत्तामें सबकी स्वतःस्वाभाविक स्थिति है । सत्तामें
स्वतःस्वाभाविक स्थितिको ही परम विश्राम, सहज समाधि, सहजावस्था[*] आदि नामोंसे कहा गया है । सहजावस्था स्वतःसिद्ध है । उसमें
न प्रयत्न है, न अप्रयत्न है; न करना है, न नहीं करना है; न संयोग है, न वियोग है;
न भाव है, न अभाव है; न स्थिरता है, न चंचलता है; न आना है, न जाना है । यह
सहजावस्था कभी बनती-बिगड़ती नहीं । चाहे महाप्रलय हो जाय, चाहे महासर्ग हो जाय,
चाहे करोड़ों ब्रह्माजी बीत जायँ, पर सहजावस्था ज्यों-की-त्यों रहती है— इदं ज्ञानमुपाश्रित्य
मम साधर्म्यमागताः । सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ (गीता २/१६) ‘इस ज्ञानका आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी
सधर्मताको प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्गमें भी उत्पन्न नहीं होते और महाप्रलयमें
भी व्यथित नहीं होते ।’ भगवान्ने बहुत ही मार्मिक बात कही है— ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । (गीता २/१६) ‘असत्की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात्
असत् नित्य-निरन्तर निवृत्त है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत्
नित्य-निरन्तर प्राप्त है ।’ सत्ता एकमात्र सत्-तत्त्वकी ही है । असत्की सत्ता है ही
नहीं । सत्-ही-सत् है, असत् है ही नहीं । जो निरन्तर बदल रहा है तथा नाशकी तरफ
जा रहा है, उस असत्की सत्ता हो ही कैसे सकती है ? जो भी सत्ता और महत्ता दीखनेमें
आती है, वह सब सत्के कारण ही है । एक मार्मिक बात है कि
सत् ही असत्को सत्ता देता है । कारण कि सत् असत्का विरोधी नहीं है, प्रत्युत
सत्की जिज्ञासा असत्की विरोधी है । इसलिये ज्ञानी महापुरुष अज्ञानीसे द्वेष नहीं
करते, प्रत्युत उनका भी आदर करते हैं । ब्रह्माजी भगवान्से कहते हैं— तस्मादिदं जगदशेषमसत्स्वरूपं स्वप्नाभमस्तधिषणं पुरुदुःखदुःखम् । तय्येव नित्यसुखबोधतनावनन्ते मायात उद्यदपि यत् सदिवावभाति ॥ (श्रीमद्भागवत
१०/१४/२२) ‘यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्नकी तरह असत्य,
अज्ञानरूप तथा दुःख-पर-दुःख देनेवाला है । आप परमानन्द, ज्ञानस्वरूप तथा अनन्त हैं
। यह मायासे उत्पन्न एवं मायामें विलीन होनेपर भी आपमें आपकी सत्तासे सत्यके समान
प्रतीत होता है ।’
[*] वास्तवमें सहजावस्था कोई अवस्था नहीं है, पर उस
तत्त्वको समझनेके लिये अपनी भाषामें उसको सहजावस्था कह देते हैं । वास्तवमें भाषा
वहाँतक पहुँचती ही नहीं । |