यदि असत् (सृष्टि) की सत्ताको मानें तो भी उसका सनातन तथा
अव्यय बीज[*] सत् ही है— बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । (गीता ७/१०) प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ (गीता ९/१८) यदि असत्की सत्ता न मानें तो उसका बीज भी नहीं है,
प्रत्युत केवल सत्-ही-सत् है—‘वासुदेवः सर्वम्’ । सत्-तत्त्वमें न आकर्षण है, न विकर्षण; न उपरति है, न
आसक्ति; न सकामभाव है, न निष्कामभाव; न पूर्णता है, न अपूर्णता; केवल सत्-ही-सत्
है । आकर्षण-विकर्षण, उपरति-आसक्ति आदि सब सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है ।
अतः साधककी दृष्टि सत्की तरफ ही रहनी चाहिये । जिसकी
सत्ता ही नहीं है, उसकी तरफ क्या देखें ? जब सत्के सिवाय कुछ है ही नहीं, तो फिर इसमें क्या अभ्यास
करें ? क्या चिन्तन करें ? इसमें न कुछ करना है, न कुछ सोचना है, न कुछ निश्चय
करना है, न कुछ प्राप्त करना है और न कुछ निवृत्त करना है । अतः असत्की निवृत्ति करनी ही नहीं है; क्योंकि असत् नित्यनिवृत्त
है और सत्की प्राप्ति करनी ही नहीं है, क्योंकि सत् नित्य-निरन्तर प्राप्त है—ऐसा विचार करके चुप हो जायँ, कुछ भी चिन्तन न
करें; क्योंकि चिन्तन करनेसे हम
संसारके साथ जुड़ते है और परमात्मासे दूर होते हैं । अतः चिन्तन नहीं करना है,
प्रत्युत चिन्तन करनेकी शक्ति जिससे प्रकाशित होती है,
उसमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव करना है । जिस ज्ञानके अन्तर्गत वृत्तियाँ दीखती
हैं, उस ज्ञानमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव करना है । अपने-आप कोई चिन्तन,
स्फुरणा आ जाय तो उसकी तरफ ख्याल न करके उसकी उपेक्षा कर दें । जैसे जलके स्थिर
(शान्त) होनेपर उसमें मिली हुई मिट्टी अपने-आप नीचे बैठ जाती है, ऐसे ही चुप होनेपर सब विकार अपने-आप शान्त हो जाते हैं, अहम् गल जाता
है और वास्तविक तत्त्व (अहंरहित सत्ता)-का अनुभव हो जाता है । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
[*] बीज वृक्षसे पैदा होता है और वृक्षको पैदा करके खुद नष्ट हो
जाता है । परन्तु परमात्मामें ये दोनों दोष नहीं है—यह बतानेके लिये यहाँ ‘सनातन’ (७/१०) और ‘अव्यय’
(९/१८) शब्द आये हैं । तात्पर्य है कि ‘सनातन’
होनेसे परमात्मा उत्पन्न नहीं होते और ‘अव्यय’
होनेसे परमात्मा अनन्त सृष्टियोंको उत्पन्न करके भी स्वयं ज्यों-के-त्यों ही रहते
हैं । |