।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      चैत्र कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७८, शनिवार
            विकारोंसे कैसे छूटें ?


जिसको यह कहते हैं, वह ‘मैं’ नहीं हो सकतायह नियम है । ‘यह’ तो ‘यह’ ही रहेगा । भगवान्‌ने शरीरको ‘यह’ कहा है‘इदं शरीरम्’ (गीता १३/१) । अतः यह शरीर ‘मैं’ कैसे हो सकता है ? शरीर ‘मेरा’ भी नहीं हो सकता; क्योंकि हम स्वयं भगवान्‌के अंश हैं । ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) और शरीर, इन्द्रियाँ आदि प्रकृतिके अंश हैं‘मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५/७) । अतः शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना भूल है । जितने भी विकार आते हैं, वे सब मनमें, बुद्धिमें, इन्द्रियोंमें ही आते हैं । स्वयंमें विकार कभी आता ही नहीं । विकार आता है और चला जाता हैइसको आप जानते हो । आने-जानेवाला विकार आपमें कैसे आ सकता है ? इस बातको पक्का कर लो कि मैं रहनेवाला हूँ और ये विकार आने-जानेवाले हैं । विकारोंको आने-जानेवाले और अनित्य समझकर उनको सह लो अर्थात्‌ निर्विकार रहो‘आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व’ (गीता २/१४) ।

यह नियम है कि संसारके साथ मिलनेसे संसारका ज्ञान नहीं होता और परमात्मासे अलग रहनेपर परमात्माका ज्ञान नहीं होता । संसारसे अलग होनेपर ही संसारका ज्ञान होगा और परमात्मासे अभिन्न होनेपर ही परमात्माका ज्ञान होगा । इसलिये यदि असत्‌के साथ मिल जाओगे तो न सत्‌का ज्ञान होगा और न असत्‌का ज्ञान होगा । कारण यह है कि वास्तवमें संसारसे हमारी भिन्नता है और परमात्मासे हमारी अभिन्नता है ।

श्रोताअन्तःकरण शुद्ध होनेसे तो ज्ञान हो जायगा ?

स्वामीजीतो अन्तःकरण शुद्ध कर लो, मना कौन करता है ? परन्तु भाई, शुद्ध करनेसे अन्तःकरण इतना जल्दी शुद्ध नहीं होगा, जितना जल्दी सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे शुद्ध होगा । कारण कि असत् (अन्तःकरण)-की सत्ता मान करके आप उसको शुद्ध करना चाहोगे तो उसमें बहुत देरी लगेगी और वह होगा भी नहीं । यदि असत्‌की सत्ता न मानकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर लो तो बहुत जल्दी काम बनेगा ।

भगवान्‌ने कहा है‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते’ (गीता १३/१) अर्थात्‌ स्थूल, सूक्ष्म और कारणये तीनों ही शरीर ‘इदं’ होनेसे अपनेसे अलग हैं और ‘क्षेत्र’ नामसे कहे जाते हैं । जो इसको जानता है, वह ‘क्षेत्रज्ञ’ नामसे कहा जाता है‘एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः’ (१३/३) । भगवान्‌की तरफ दृष्टि होनेसे जितनी शुद्धि होगी, उतनी अन्तःकरणको शुद्ध करनेकी चेष्टासे शुद्धि नहीं होगी । आप परमात्माके साथ जितने अभिन्न रहोगे, उतनी ही आपमें स्वाभाविक शुद्धि आयेगी । कारण कि आपने सत्‌के साथ अभिन्नता कर ली, मूल चीज पकड़ ली । अब इसमें कठिनता क्या है ? बहुत सीधी-सरल बात है ।

आप आने-जानेवाले असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध न जोड़कर अपने सत् स्वरूपमें स्थित रहो । जब आप असत् पदार्थोंसे सुख लेने लग जाते हो, तब असत्‌का संग हो जाता है । असत्‌का संग करनेके बाद आप अन्तःकरणको शुद्ध करनेके लिये जोर लगाते हैं और समझते हैं कि हम ठीक कर रहे हैंयही उलझन है, यही असमर्थता है । जोर लगानेपर भी जब काम नहीं बनता, तब हताश हो जाते हैं कि भाई, हमारेसे तो यह काम नहीं बनता । क्यों नहीं बनता कि आपने असत्‌को पकड़ लिया । असत्‌को न पकड़ें तो अपना स्वरूप बना-बनाया, ज्यों-का-त्यों ही है ।

शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृतिमें स्थित हैं‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५/७) । इनमें आप उस सत्‌को लाना चाहते हैं और जब वह आता नहीं, तब कहते है कि सत्संगकी बातें हमारे व्यवहारमें नहीं आती, हमारे आचरणमें नहीं आती ! असत् (अन्तःकरण)-को अपना मानकर उसे शुद्ध करना चाहोगे तो कैसे शुद्ध होगा ? उसको अपना मानना ही अशुद्धि है । ममता मल है‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७/११७ क) । मलको लगाकर शुद्ध करना चाहते हो तो कैसे शुद्ध होगा ?

ये बातें सुनकर आपमें हिम्मत आनी चाहिये कि अब हम यह भूल नहीं करेंगे; क्योंकि अब हमने इसको ठीक समझ लिया । असत्‌को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लियामूलमें यहाँसे भूल हुई । यही मूल भूल है । इस भूलको मिटाकर अपने निर्विकार स्वरूपमें स्थित हो जाओ । जबतक भूल न मिटे, तबतक चैन नहीं आना चाहिये । छोटा बालक हर समय अपनी माँकी गोदीमें रहना चाहता है । गोदीसे नीचे उतरते ही वह रोने लग जाता है । आप भी हर समय सत् (भगवान्‌)-की गोदीमें रहो । असत्‌में जाते ही रोने लग जाओ कि अरे ! कहाँ आ पड़े ! हम तो गोदीमें ही रहेंगे । फिर असत्‌का सम्बन्ध सुगमतासे छूट जायगा ।

नारायण !       नारायण !       नारायण !